अस्तित्व के संकट से गुजरती कांग्रेस

चुनावों के बीच बड़े पैमाने पर नेताओं का पार्टी छोड़ना और उम्मीदवारों का किसी न किसी बहाने चुनाव लड़ने से इन्कार करना कांग्रेस में व्यापक स्तर पर निराशा और अस्तित्व के संकट का संकेत देता है।

Pratahkal    08-May-2024
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रशीद किदवई : चुनावों के बीच बड़े पैमाने पर नेताओं का पार्टी छोड़ना और उम्मीदवारों का किसी न किसी बहाने लोकसभा चुनाव लड़ने से इन्कार करना कांग्रेस पार्टी में व्यापक स्तर पर निराशा और अस्तित्व के संकट का संकेत देता है। ऐसे में, अगर कांग्रेस पार्टी अपने दम पर 80-100 लोकसभा सीटों के आंकड़े को पार कर जाती है, तो यह तमाम प्रतिकूलताओं एवं धुंधले परिदृश्य के बीच कांग्रेस पार्टी को नया जीवन मिलने जैसा होगा।
 
आगामी 4 जून को कांग्रेस अगर किसी भी तरह से भाजपा को 272 सीटों के बहुमत के आंकड़े से नीचे रखने में सफल हो जाती है, तो यह आगामी लड़ाई के लिए जिंदा रहेगी। कांग्रेस के खत्म होने का दावा करने वालों के लिए यह खबर होगी कि कांग्रेस अभी जिंदा है और पैर मार रही है।
 
कांग्रेस के संकटग्रस्त, लेकिन दृढ़ निश्चयी नेता राहुल गांधी के लिए दांव बहुत ऊंचे हैं। दो भारत जोड़ो यात्राओं और अपनी संसदीय सीट बरकरार रखने के लिए वायनाड से चुनाव लड़ने के बाद राहुल ने रायबरेली सीट से भी नामांकन दाखिल करके अपने दोस्त और दुश्मन-सबको हैरान कर दिया है। वह सभी राजनीतिक दलों से दो लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने वाले एकमात्र महत्वपूर्ण नेता हैं। राहुल द्वारा अमेठी सीट से चुनाव नहीं लड़ने के बारे में काफी कुछ लिखा गया है, जहां से वह 2019 में चुनाव हार गए थे। ध्यान रखना चाहिए कि राहुल भाजपा प्रत्याशी और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के खिलाफ चुनाव लड़कर अमेठी चुनाव को राहुल बनाम ईरानी नहीं बनने देना चाहते थे। चेतन और अवचेतन स्तर पर अब भी राहुल और कांग्रेस 2024 को राहुल बनाम नरेंद्र | मोदी के रूप में देखते हैं।
 
बारीकी से जांच करने पर पता चलता है कि राहुल पर उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ने के लिए समाजवादी पार्टी का भारी दबाव था। उत्तर प्रदेश में 34 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन के 40 फीसदी से ज्यादा बोट हैं। दूसरे शब्दों में, इन सीटों पर कब्जा किया जा सकता है। क्या समाजवादी पार्टी कांग्रेस गठबंधन ये 34 सीटें भाजपा के खाते में जाने से रोक सकता है?
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो और अयोध्या के राम मंदिर का दौरा इस बात का संकेत है कि भाजपा राहुल एवं अखिलेश को खतरे के तौर पर देख रही है। हालांकि बसपा और मायावती उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए सबसे बड़ी राहत बनी हुई हैं। ऐसे में कल्पना कीजिए कि अगर बसपा का वोट शेयर तेजी से 'इंडिया' गठबंधन की ओर चला जाता है, तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में भारी संकट की स्थिति पैदा हो जाएगी।
 
राधिका खेड़ा, अरविंदर सिंह लवली, गौरव बल्लभ, रोहन गुप्ता, सुरेश पचौरी, अक्षय कांति बाम, वीरेंद्र सिंह और संजय निरूपम भले ही राजनीतिक दृष्टि से मजबूत नेता न दिखें, लेकिन इनमें एक समानता है। इनमें से कई नेताओं ने राम मंदिर और प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से कांग्रेस के इन्कार का मुद्दा उठाया है। हालांकि सच्चाई यह थी कि कांग्रेस अपने नेताओं के अयोध्या जाने के विरोध में नहीं थी, बल्कि 22 जनवरी, 2024 को कमोबेश मोदी और भाजपा के साथ ही थी। अजय राय, दीपेंद्र हुड्डा और मंदिर जाने वाले अन्य लोगों को आखिर लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के टिकट दिए ही गए। असंतुष्टों और विद्रोहियों ने चुनाव के बीच में किसी न किसी बहाने से पार्टी छोड़ी है, जिससे कांग्रेस को शर्मिंदगी एवं बेचैनी का सामना करना पड़ा है। सूरत में भाजपा निर्विरोध चुनाव जीत गई, जबकि इंदौर, पुरी, अहमदाबाद पूर्व में भाजपा से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के पास योग्य उम्मीदवार नहीं है। यह असाधारण स्थिति है।
 
बहरहाल कांग्रेस के लिए अच्छी खबर यह है कि उसकी स्थिति इससे ज्यादा खराब नहीं हो सकती। वर्ष 1967, 1977, 1996, 1998-1999 की पराजय के विपरीत, 2014 और 2019 में हार के बावजूद पार्टी में कोई बिखराव नहीं हुआ और कांग्रेस से टूटकर कोई अलग पार्टी नहीं बनी। फिर भी समय समय पर नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने से कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ है। 1969 और 1978 की इंदिरा गांधी के विपरीत, मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को अपने राजनीतिक विरोधियों से मुकाबला करने के लिए फिर से संगठित होने या मजबूत संगठन बनाने का समय नहीं मिल रहा है। पार्टी में आंतरिक असंतोष खत्म होता नहीं दिख रहा और वंशवाद का आरोप सोनिया, राहुल एवं प्रियंका को कमजोर कर रहे हैं, जो खुद ही सत्ता की डोर संभाले हुए हैं, भले ही कांग्रेस पर नियंत्रण को इसकी वजह बताया जा रहा है।
 
सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस बदलाव से बचती रही। कांग्रेस शायद एकमात्र राजनीतिक पार्टी है, जहां 1970 के दशक के पार्टी नेता (संजय गांधी की फैक्टरी से निकले) 2014-2024 में भी पार्टी में पकड़ बनाए हुए हैं/थे। अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी, कमलनाथ, अहमद पटेल (नवंबर, 2020 में जिनका निधन हो गया) और अन्य लोग संजय युग में ही प्रमुखता से सामने आए थे। इनमें से ज्यादातर लोग पांच दशक से ज्यादा समय होने के बावजूद अब भी पार्टी में प्रासंगिक बने हुए हैं। ये लोग हमेशा संजय, राजीव, सोनिया के करीबी सहयोगियों में थे, जो केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ स्तर के एआईसीसी पदाधिकारियों के रूप में उभरे थे। वे छोटे- छोटे क्षत्रप थे, लेकिन निर्णय प्रक्रिया का प्रभावशाली हिस्सा थे। वास्तव में इसने राज्यों में संरक्षणवाद का विस्तार किया। वर्ष 2006 में एआईसीसी महासचिव बने राहुल गांधी ने बदलाव या सुधार की कोशिश की, पर जल्द ही उन्हें और उनकी टीम को गुलाम नबी आजाद (अब कांग्रेस से अलग) के वफादार लोगों (अहमद अंबिका दिग्विजय नेटवर्क) के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि युवा कांग्रेस, एनएसयूआई, सेवा दल और महिला कांग्रेस में भी राहुल के बदलाव लाने के प्रयास को काफी विरोध और प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। तब यूपीए सत्ता में थी और सोनिया एआईसीसी अध्यक्ष थीं, जिन्होंने 'सब चलता है' के दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया, जिसके चलते निराशा की भावना पैदा हुई। जब तक कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए गठबंधन सत्ता में था, सब कुछ दबा हुआ था। उसके बाद आलम यह है कि पिछले दस वर्षों में 15 पूर्व मुख्यमंत्री पार्टी छोड़ चुके हैं।