ओबीसी आरक्षण से खिलवाड़

पिछड़े वर्ग का हक छीनकर मुस्लिम जातियों को आरक्षण देने का चलन बंगाल के साथ-साथ राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र और तेलंगाना में भी है...

Pratahkal    30-May-2024
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अवधेश कुमार : लोकसभा चुनाव (LokSabha Election) में पंथ या मजहब के को सांप्रदायिक करार देने वालों के लिए कलकत्ता उच्च न्यायालय का फैसला एक आघात बनकर आया। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा न्यायालय के आदेश के विरूद्ध प्रकट नाराजगी बताती है कि अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम पर मुस्लिम समुदाय को ज्यादा से ज्यादा आरक्षण देने के असंवैधानिक, अनैतिक और समाज विरोधी फैसले पर वह केवल वोट के लिए यानी राजनीतिक कारणों से अड़ी रहना चाहती हैं। वह यहां तक बोल गई कि जज को निर्देश देकर फैसला कराया गया है। बंगाल की सत्ता में आने के बाद ममता सरकार ने 5 लाख से ज्यादा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए। उनमें से अधिकांश मुस्लिम समुदाय के लोगों को मिले। उच्च न्यायालय के अनुसार इन जातियों को ओबीसी घोषित करने के लिए वास्तव में रिलीजन ही एकमात्र मानदंड प्रतीत होता है और हमारा मानना है कि मुसलमानों की 77 श्रेणियों को पिछड़ों के रूप में चुना जाना पूरे मुस्लिम समुदाय का अपमान है। 77 श्रेणियों को ओबीसी में शामिल करने से स्पष्ट होता है कि इसे वोट बैंक के रूप में देखा गया है। न्यायालय की ये टिप्पणियां असाधारण हैं, लेकिन ये केवल तृणमूल और ममता बनर्जी ही नहीं, बल्कि देश के उन सभी राजनीतिक दलों, सरकारों और नेताओं के वास्तविक चेहरे को उजागर करतीं हैं, जो अन्य पिछड़ों के नाम पर केवल वोट के लिए मुसलमानों को असंवैधानिक रूप से आरक्षण का लाभ देने के लिए इसी तरह के कदम उठा रहे या उठाने की तैयारी में हैं।
 
वास्तव में, भारत के हर नागरिक को अवसर की समानता उपलब्ध कराने के लिए संवैधानिक तरीकों से व्यवस्था होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ईडब्ल्यूएस यानी आर्थिक रूप से कमजोर समूहों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण दिया, जिसमें मजहब का बंधन नहीं है। उसमें हिंदुओं के साथ मुसलमान भी शामिल हैं। विरोध केवल पिछड़े दलित और जनजातियों का हक मारकर असंवैधानिक तरीके से वोट बैंक के लिए मुसलमानों को आरक्षण देने का है। बंगाल में वाम मोर्चा सरकार ने 2010 में एक अंतरिम रिपोर्ट तैयार कराकर अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची बनाई और उसे ओबीसी ए नाम दिया। सरकार ने बैकवर्ड मुस्लिम शब्द का प्रयोग करते हुए उनके लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। इनमें ऐसे 42 समूह बनाए गए, जिनमें 41 केवल मुस्लिम समुदाय के थे। 2011 में ममता बनर्जी के नेतृत्व में जब तृणमूल सत्ता में आई तो उसने कोई अंतिम रिपोर्ट प्राप्त किए बिना ही 11 मई, 2012 को 35 ऐसे वर्गों या श्रेणियों को शामिल किया, जो मुस्लिम थे। इनमें नौ ओबीसी ए एवं 26 ओबीसी बी में शामिल किए। इस तरह कुल 77 वर्ग या श्रेणियां हो गई। बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग और सरकार ने इसके लिए दूत गति से काम किया। नियमानुसार न कोई अधिसूचना जारी हुई, न छानबीन की गई और न किसी तरह का आवेदन मांगा गया और न इस सामान्य नियम का पालन किया गया कि जिन्हें इस पर आपत्ति हो, वे उसे दर्ज करें। न्यायालय ने लिखा है कि ममता सरकार ने फैसला लेते समय ऐसा कोई आंकड़ा नहीं दिया, जिससे स्पष्ट हो सके कि बंगाल सरकार की सेवाओं में इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। अनारक्षित पूरे समुदाय को शामिल करने के लिए इस तरह की अपर्याप्तता का प्रमाण आवश्यक है। साफ है कि बोट के लिए मुसलमानों को आरक्षण देने के मामले में किसी तरह के नियम कानून के पालन की आवश्यकता ममता सरकार ने समझी ही नहीं। 
 
इस फैसले से साबित हो गया है कि भाजपा तथा अन्य हिंदू संगठनों द्वारा ममता बनर्जी पर वोट के लिए पिछड़ों का हक मारकर मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने के लिए असंवैधानिक तरीके उपयोग करने का आरोप सही था। वोट के लिए आपको एक समुदाय को खुश करना है तो वहां नियम, कानून, संविधान तथा आरक्षण की वास्तविक अवधारणा या सिद्धांत आड़े नहीं आते। यह जानकर आश्चर्य होगा कि बंगाल में 179 जातियां अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं। इनमें 118 मुस्लिम हैं। यानी हिंदू पिछड़ी जातियों की संख्या केवल 61 है। जरा सोचिए कि जिस राज्य में करीब 70 प्रतिशत आबादी हिंदू हो, वहां अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में उसकी भागीदारी 33 प्रतिशत के आसपास कैसे हो सकती है? क्या यह हिंदू समाज के पिछड़े वर्ग के साथ धोखा और अन्याय नहीं है इसे मुस्लिम तुष्टीकरण का शर्मनाक नमूना न कहें तो क्या कहें? भारत का संविधान किसी भी तरह रिलीजन, पंथ या मजहब को आरक्षण का आधार नहीं मानता।
 
वर्ष 2018 में मोदी सरकार ने जब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया राज्यों को राज्य स्तर पर पिछड़ा वर्ग की सूची में जातियों को शामिल करने की स्वतंत्रता मिली। कई राज्यों ने बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय को इनमें शामिल कर दिया। बंगाल में 71 जातियों को ममता सरकार ने पिछड़ा वर्ग में शामिल किया, जिनमें 65 मुस्लिम समुदाय से संबंधित हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने बंगाल सरकार से इस संदर्भ में औपचारिक पत्र लिखकर पूछताछ की। इसका यथेष्ट उत्तर आयोग को नहीं मिला। आयोग ने यह भी पूछा था कि आखिर मुसलमानों के अंदर जो पिछड़ी जातियां शामिल हैं, वे जातियां हिंदुओं में कहां चली गई? बताया यह गया कि इनमें से अधिकांश ने मतांतरण कर लिया है। उल्लेखनीय है कि बंगाल में 1971 के बाद मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़नी शुरू हुई जो आगे रूकनी चाहिए थी। इसमें गिरावट नहीं आई। तब क्या मुस्लिम समुदाय को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने के कारण हिंदू जातियां वाकई मतांतरित होकर मुसलमान बन गई? यदि यह सच है तो इससे भयावह स्थिति कुछ नहीं हो सकती। वोट बैंक के लिए पार्टियां तुष्टीकरण में किस सीमा तक जा सकती हैं, इसका इससे सटीक उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता। यह स्थिति केवल बंगाल तक नहीं है। पिछड़ा वर्ग आयोग ने पाया कि राजस्थान में अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण का बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदायों के पास जा रहा है। यह स्थिति कर्नाटक, आंध्र और तेलंगाना सहित कई राज्यों में है। इसके लिए अलग-अलग तरीके अपनाए गए हैं। कहीं-कहीं तो क्रीमी लेयर के नियम ऐसे बना दिए गए, जिनमें हिंदू पिछड़ी जातियां आरक्षण की अर्हता से बाहर चली जाएं और मुस्लिम जातियां उसके दायरे में आ जाएं