अपने-अपने हिस्से का भारत

इंदिरा शासन के अंत और मोदी के आगमन के बीच के ज्यादातर हिस्से में गठबंधन की खंडित राजनीति अपरिहार्य रही, जिसमें प्रत्येक धर्मनिरपेक्ष आदर्शवादी को अपने-अपने हिस्से का भारत टुकड़ों में मिला। आज जब निरंतरता की इस राजनीति की जगह नए विचार ले रहे हैं, तो पुराने सत्तावादियों की नींदें उड़ना स्वाभाविक है।

Pratahkal    21-May-2024
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India of its own share
 
एस प्रसन्नराजन - अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक वर्ग व चिदे हुए घरेलू सियासी पंडितों द्वारा भारत को न्यायविहीन बत्ताना और लोकतंत्र के मनमाने विश्लेषणों का उपयोग चेतावनी के तौर पर करना 2024 के लोकसभा चुनावों के विश्लेषण में एक परंपरा बनता दिख रहा है। यह सच है कि लोकतंत्र के प्रबंधन की कमियां और इसके सर्वोत्तम और निकृष्ट आवेगों का खुद के फायदे के लिए उपयोग करने वालों का आत्मविश्वास ही इसकी सीमाएं दर्शाता है। यह भी तो इसकी सीमा है, जिसमें इसे असहमति को प्रामाणिकता का जामा पहनाने के लिए विचारों का एक कमजोर मिश्रण माना जा रहा है। लेकिन फिलहाल, 'देश किस ओर जा रहा है' के विचारों के बाजार में 'लोकतंत्र को नियंत्रित करने' से जुड़े फने उड़ते दिख रहे हैं। अलग-अलग तरह से सामने आने वाले इन विचारों और इरादों को अगर अनुभवों के तल पर तटस्थ रूप से तौला जाए, तो उदारवाद के नाम पर की जा रही राजनीति समझ में आती है।
 
इस संदर्भ में जो वाक्य बार बार दोहराया जा रहा है, अब उसे ही 'भारत निरंकुशता की चपेट में है' देखिए । अगर 1989 से पहले के कम्युनिस्ट युग में नेता उस विचार के दर्शन हुए, जो पौराणिक कथाओं से जन्मा और के क्रांति की मुक्ति के आतंक में अपने चरम पर पहुंचा। तो सोवियत युग के बाद के वक्त ने वहीं, ऐसे 'शक्तिशाली नेता' का उदय देखा, जिसने अपनी ताकत से सवाल पूछने वालों को हतोत्साहित किया। ऐसे नेता उत्तर साम्यवाद के विफल समाजों में ही नहीं, बल्कि आज भी संगठनों पर हावी होते दिख रहे हैं।
 
हंगरी में विक्टर ओर्बन हों या फिर रूस में व्लादिमीर पुतिन का नव जारवाद तथाकथित शाही पतन के लिए लड़ी गई लड़ाई में घायल राष्ट्रीय गौरव को सांस्कृक्तिक हथियार में बदलने वाले नेताओं की जीत को ही दर्शाता है। इस सूची में जो एक नाम और जोड़ा जा सकता है, वह है तुर्किये के एदोंगन का, जो एक मुस्लिम देश में अतातुर्क विरोध का चेहरा बने हैं, जो धर्मनिरपेक्षता की विरासत और इस्लामवाद के उफान के बीच फंसे हुए हैं। जाहिर है कि एर्दोगन के लोकतंत्र में राजनीतिक असहमति खतरनाक है।
 
लेकिन एक मजबूत नेता इनसे अलग भी है, जो अपनी ताकत का श्रेय लोकतंत्र को देता है। नरेंद्र मोदी जब 2014 में जीते थे, तब उन्हें मिले जनादेश ने गठबंधन को भारतीय राजनीति की अनिवार्यता मानने के विचार और कांग्रेसवाद की पुरानी परंपरा को, जिसमें आलाकमान को गैर सांविधानिक शक्तियां प्रथम परिवार के पास होती हैं, भी ध्वस्त कर दिया। उनसे पहले के नेता, जिन्हें पार्टी की उद्धारक महिला ने देश को सौंपा था, निर्देशों के लिए प्रधानमंत्री के पीछे से काम कर रही अलौकिक शक्ति को ताका करते थे।
 
आज ऐसे कई उदारवादी नेता हो सकते हैं, जो मोदी के बजाय ऐसे नेताओं को आदर्श विकल्प मानते हों और इन्हीं में सौम्य भारत की वह छवि देखते हैं, जिसे वे खो चुके हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि ऐसे समय में जब चीजों को सिर्फ नकारना ही बदलाव के खिलाफ वाम-उदारवादियों की ढाल बन गई हो, तब ओढ़ी गई विनम्रता को भी नेतृत्व के विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिशें होती हैं। उल्लेखनीय है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल के अंत और मोदी के आगमन के बीच के वक्त के ज्यादातर हिस्से में हमने जड़ता और उतार-चढ़ाव देखे, हमने गठबंधन के ऐसे नेताओं को भी अपरिहार्य बनते देखा, जिनका संयुक्त मूल्य उनके व्यक्तिगत प्रभाव से कम था। गठबंधन की उस खंडित राजनीति में वाम पक्ष के प्रत्येक धर्मनिरपेक्ष आदर्शवादी को अपने-अपने हिस्से का भारत टुकड़ों में मिला। यह वह लोगों राजनीति थी, जिसमें हर किसी की नजर अपने फायदे पर थी।
 
लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व ने सबकुछ बदल दिया। निरंतरता की राजनीति की जगह नए विचारों ने ली। सत्ता के प्रयोग में आए इस सांस्कृतिक बदलाव ने पुराने सत्तावादियों की नींदें उड़ा दीं। उन्हें हर ओर नकारात्मक चीजें ही दिख रही हैं। मोदी की प्रतिबद्ध राजनीति की जो दृढ़ता है, उसका सामना वे न कर पा रहे हैं, और न कर सकते हैं। यही वजह है कि अपने नैतिक सिद्धांतों के प्रति जवाबदेह नेता, गैर सांविधानिक केंद्रों के प्रति जवाबदेह नेता की तुलना में कम स्वीकार्य होता है। और, यही वजह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान भ्रष्टाचार से जुड़ी सुर्खियों को तुलना में कम स्वीकार्य होता है।
 
यही वजह है कि 'बहुसंख्यकवाद' जैसे शब्दों का आकस्मिक प्रयोग कुछ लोगों को विकास को तुष्टीकरण से अलग करके देखने में सरकार की सांविधानिक ईमानदारी की अनदेखी करने की अनुमति देता है। वह शक्ति, जो धारक के नैतिक मानकों और की आकांक्षाओं को ऋणी होती है, वहीं दृढ़ विश्वास की राजनीति को वैध बनाती है। मोदी शायद भारतीय लोकतंत्र में ऐसे एकमात्र नेता हैं, जिन्हें ऐसी शक्तियों का इस्तेमाल करने के बावजूद उदार लोकप्रिय समर्थन मिला है। शक्तियों को अपने हाथ में रखने उनकी राजनीतिक शैली को निरंकुशता या अधिनायकवाद बताने का अर्थ उन्हें उदारवादियों के घिसे-पिटे फॉर्मूले के जरिये परिभाषित कर एक छोटे दायरे में सीमित करने जैसा होगा। उनके शासनकाल में भारत की प्रगति की सराहना अब परिचित चेतावनी के साथ करना, उस भारत के साथ जुड़ने की बौद्धिक बेईमानी को उजागर करता है, जो तेजी से अपनी सांस्कृतिक बाधाओं को दूर कर रहा है। लोकतंत्र को बचाने के लिए नैतिक साहस की जरूरत होती है। हमारे लोकतंत्र को एक व्यक्ति के उस जनादेश के प्रति दृढ़ विश्वास से खतरा कैसे हो सकता है, जिसे बचाए रखने के लिए वह लगातार संघर्ष कर रहा है?