संविधान बदलने का भ्रामक नैरेटिव

चुनाव प्रचार के दौर में विपक्षी दलों के कई नेता भाजपा पर यह आरोप लगा रहे हैं कि तीसरी बार सत्ता में आने पर नरेन्द्र मोदी सरकार संविधान बदल देगी। ऐसे में यह समझा जाना चाहिए कि यदि भाजपा को वास्तव में संविधान में बदलाव करना होता तो पिछले 10 वर्षों में इसकी कोशिश दिखाई देती। जब अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने जैसा साहसिक कदम उठा लिया गया तो अन्य बदलाव करने का यदि उद्देश्य होता तो उसे भी किया जा सकता था।

Pratahkal    13-May-2024
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changing the constitution
 
अनंत विजय: लोकसभा चुनाव (Loksabha elections) के दौरान कांग्रेस (Congress) और आइएनडीआइए के घटक दल संविधान को बदलने का नैरेटिव गढ़ने का प्रयत्न कर रहे हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) अपने चुनावी भाषणों में भाजपा पर संविधान बदलने की मंशा का आरोप लगा रहे हैं। जनता को यह बताकर भयभीत करने का प्रयत्न भी कर रहे हैं कि अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार बनती है तो यह संविधान को बदल देंगे। राहुल गांधी चुनावी सभाओं में संविधान हाथ में लेकर निरंतर इस बात पर बल दे रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह यह कह चुके हैं कि संविधान उनके लिए सबसे पवित्र हैं और उनकी पार्टी संविधान को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकती है। बावजूद इसके आइएनडीआइए के नेता संविधान बदलने के नैरेटिव को मजबूती देने के लिए प्रयत्नशील हैं। कोई एक हाथ में संविधान की प्रति लेकर वीडियो बना रहे हैं तो कोई इसे आरक्षण से जोड़ रहे हैं। कोई इस नैरेटिव को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे माधव सदाशिवराव गोलवलकर से जोड़कर नई व्याख्या कर रहे हैं। कुछ लोग इस नैरेटिव को मजबूती देने के लिए गोलवलकर की पुस्तक 'बंच आफ थाट्स' का हवाला दे रहे हैं।
 
कुल मिलाकर संविधान बदलने के नैरेटिव के जरिये वंचित समाज के मतदाताओं के मन में यह बात डालने की कोशिश हो रही है कि यदि मोदी सरकार तीसरी बार आएगी तो आरक्षण खत्म कर देगी। यह पिछले कई चुनावों से होता आया है। जब भी देश में चुनाव आता है तो विपक्षी दल, भाजपा पर आरक्षण खत्म करने की कोशिश करने का आरोप लगाते हैं। कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध किसी अधिकारी की बात की तोड़-मरोड़ कर तो कभी किसी पुरानी पुस्तक की पंक्तियों को उठाकर तो कभी डीप फेक वीडियो बनाकर ये भ्रम फैलाने की कोशिश होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत, सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, प्रधानमंत्री मोदी तक इस बारे में कई बार यह कह चुके हैं कि आरक्षण खत्म करने जैसी कोई बात ही नहीं है। बाबा साहब के बनाए संवैधानिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा।
 
राहुल गांधी को संविधान बदलने के इस नैरेटिव को गढ़ते और रैलियों में संविधान की प्रति लहराते देखकर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जेल डायरी में 13 अप्रैल 1976 को लिखी एक टिप्पणी याद आ गई। चंद्रशेखर ने लिखा था, आज कांग्रेस कार्यसमिति ने संविधान में किए जानेवाले संशोधन के संबंध में स्वर्ण सिंह समिति की रिपोर्ट पर विचार किया। जो सुझाव दिए गए हैं, उनके अनुसार संविधान में व्यापक संशोधन होगा। उच्च न्यायालयों के अधिकारों में भारी कटौती होगी। उच्चतम न्यायालय पर भी बहुत कुछ प्रतिबंध लग जाएगा। संविधान संशोधनों को चुनौती नहीं दी जा सकेगी और अन्य विधेयकों की वैधता की जांच के बारे में भी उच्चतम न्यायालय के सात न्यायाधीशों की पीठ ही सुनवाई कर सकेगी। वह भी निर्णय दो तिहाई बहुमत से होना चाहिए। चुनाव के मुकदमे न्यायालयों की परिधि से बाहर होंगे। उनका निर्णय एक समिति द्वारा होगा जिसमें संसद के प्रतिनिधि और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य होंगे। इस प्रकार यह समिति पूरी तरह बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के पक्ष में होगी। सरकारी सेवा संबंधी मामलों का निर्णय इसके लिए नियुक्त ट्रिब्यूनल द्वारा किया जाएगा। मौलिक अधिकारों के बारे में प्रत्यक्षीकरण की याचिका सुनने का अधिकार उच्च न्यायालयों को होगा, किंतु आपातकालिन स्थिति में इसे भी समाप्त कर दिया गया है। इन सुझावों में, कुछ ऐसे हैं, जो आवश्यक हैं, किंतु जिस प्रकार न्यायालयों के अधिकारो को सीमित करने का प्रयास हो रहा है और जिस वृत्ति का परिचय थोड़े दिनों में संसद ने दिया है उससे अनेक भयंकर संभावनाओं को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। चुनावों में धांधली पर कोई अंकुश नहीं रह जाएगा। ऐसी स्थिति में सारी लोकशाही को ही खतरा पैदा हो सकता है। कानून व्यवस्था, शिक्षा और कृषि में अब केंद्र को सामान्य रूप से हस्तक्षेप करने का अधिकार हो जाएगा। इस प्रकार राज्यों द्वारा अधिकार और सत्ता प्राप्त करने की मांग को ठेस लगेगी। इन सुझावों के पीछे उद्देश्य कितने भी उच्च हों, केंद्र को अधिक से अधिक अधिकार देकर सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात को पीछे धकेला जा सकता है। यह स्वस्थ विकास नहीं है।
 
चंद्रशेखर की इस टिप्पणी के बाद जब कांग्रेस पार्टी किसी अन्य दल पर संविधान बदलने की मंशा का आरोप लगाती है तो आरोप खोखले लगते हैं। कांग्रेस की उस समय की कार्यसमिति में कितनी खतरनाक बातें हुई थीं। स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों में संविधान को बदलने का जो मंसूबा था, वह पूरा हो नहीं पाया यह अलग बात है। महत्वपूर्ण ये है कि कांग्रेस पार्टी का सोच कैसा था। किस तरह के प्रस्तावों पर उनकी कार्यसमिति में चर्चा होती थी। उच्चतम न्यायालयों के अधिकारों की कटौती की चर्चा भी कार्यसमिति में हो चुकी है। चुनावी मुकदमों की सुनवाई का फैसला न्यायालयों की परिधि से बाहर रखने पर कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने मंथन किया था। कांग्रेस की लोकतंत्र को लेकर मंशा को समझने के लिए इंदिरा गांधी और बीजू पटनायक के एक संवाद का हवाला दिया जा सकता है। बीजू पटनायक का दावा था कि इंदिरा गांधी ने 1970-71 के आसपास कभी उनसे कहा था कि राजनीति में नैतिकता कुछ नहीं होती। सफलता ही सबकुछ है। उसे किसी भी प्रकार प्राप्त करना चाहिए। इंदिरा जी चुनावों को इतना महंगा बना देना चाहती थीं कि कोई भी विरोधी पार्टी उस दौड़ में शामिल ही न हो पाए। बकौल बीजू पटनायक इंदिरा गांधी वैसा ही अधिकार चाहती थीं जैसा टीटो और नासिर के पास थे। वर्ष 1975 में देश में इमरजेंसी लगाकर इंदिरा गांधी ने यह प्रयास भी किया। चंद्रशेखर इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को लेकर चिंतित रहा करते थे।
 
हमारे देश के संविधान में सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं, लेकिन उन बदलावों को देखा जाना चाहिए जिसने व्यापक वर्ग को प्रभावित किया। यह काम किन प्रधानमंत्रियों ने किया, इसे भी देखे जाने की आवश्यकता है। पहला संविधान संशोधन जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किया गया, वह नेहरू के कार्यकाल में हुआ। मूल संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़ करके उसमें समाजबाद और पंथनिरपेक्षता को जोड़ा जाना इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुआ। राजीव गांधी ने तो शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने के लिए संविधान में ही बदलाव कर दिया। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते टीवी चैनलों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रस्ताव आया था। अगर पिछले 10 वर्षों में देखें तो मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी बेहतर करने के लिए तीन तलाक को व्यवस्था को खत्म किया गया राहुल गांधी और उनके कामरेड भले ही संविधान बदलने का नैरेटिव बनाने का प्रयास करें, लेकिन कांग्रेस पर अतीत के निर्णयों और चर्चाओं का जो बोझ है, वह इस नैरेटिव को प्रामाणिकता दे पाएगी, इसमें संदेह है। संदेह तो इस नैरेटिव के जनस्वीकृति में भी है।