अमीरों की संपत्ति गरीबों में बांटने की मंशा

जिस दौर में भारत में मृत्यु कर लगता था, उस दौर में अमीरों को संपत्ति कर या "वेल्थ टैक्स" भी देना पड़ता था, जिनसे देश व अर्थव्यवस्था को कोई खास फायदा नहीं हुआ।

Pratahkal    30-Apr-2024
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PM Narendra Modi and Tax in India
 
आलोक जोशी: कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए, कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए की ये पंक्तियां यहां सही बैठती दुष्यंत हैं या नहीं, इस पर लंबी बहस हो सकती है, मगर इस वक्त देश में जो बहस चल रही है, उसमें इन पंक्तियों का ही नहीं, किसी भी कविता या गजल का इस्तेमाल हो सकता है। यहां बात सिर्फ इतनी है कि एक तरफ तो देश को आगे बढ़ाने, तरक्की तेज करने, शेयर बाजार में जबर्दस्त उछाल और पूरी दुनिया में भारत का डंका बजने की कहानी चल रही है, जबकि दूसरी तरफ अचानक औरतों के मंगल-सूत्र छिनने से लेकर हमारी आपकी विरासत पर टैक्स लगने जैसी बातें भी चुनावी मैदान के बीचोबीच घमासान का कारण बन चुकी हैं।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने कांग्रेस (Congress) पर जबर्दस्त निशाना साधा और चुनाव के मौसम में ही नजर आने वाले प्रवासी कांग्रेस के नेता सैम पित्रोदा ने उन्हें और उनकी पार्टी को मानो इसके लिए मसाला भी दे दिया। अब दोनों तरफ से जबर्दस्त गोलाबारी चल रही है। इस चक्कर में एक बात तो यह हुई कि जिन लोगों को पता भी नहीं था कि कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में लिखा क्या है, वे भी खोज खोजकर उसे पढ़ने में जुट गए हैं। सैम पित्रोदा ने क्या कहा? राहुल गांधी के बयान से जोड़कर उसे देखने पर क्या तस्वीर बनी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर क्या-क्या आरोप लगाए, इस पर वाद-विवाद प्रतियोगिता हो सकता है कि आगे लंबे समय तक जारी रहे, मगर सवाल यह है कि विरासत पर टैक्स लगाने से क्या अमीर-गरीब के बीच की खाई पाटी जा सकती है?
 
यह कोई अनूठा विचार नहीं है। सैम पित्रोदा ने तो अमेरिका का उदाहरण दिया था कि वहां एक सीमा के बाद विरासत में मिलने
वाली संपत्ति पर 55 प्रतिशत टैक्स लगता है। आर्थिक सहयोग संगठन ओईसीडी में ऐसे 24 देश हैं, जहां किसी न किसी रूप में विरासत पर टैक्स लगता है। सब जगह टैक्स की दरें अलग-अलग हैं। पीडब्ल्यूसी के अनुसार, फ्रांस में 60 प्रतिशत और जापान में 55 फीसदी टैक्स है, जबकि जर्मनी और दक्षिण कोरिया में टैक्स की दर 50 प्रतिशत है। उधर, अमेरिका और ब्रिटेन 40 फीसदी की दर से कर वसूलते हैं। हालांकि, ओईसीडी के अनुसार, उसके सदस्य देशों की 52 प्रतिशत संपत्ति मात्र दस फीसदी लोगों के हाथों में सिमटी हुई है। हालांकि, साथ में वह यह भी बताता है कि विरासत के टैक्स से इन देशों में नाममात्र की कमाई होती है।
 
भारत में यह मसला और भी पेचीदा है, क्योंकि यहां यह विचार पहली बार नहीं आया है। 1953 में संसद ने बाकायदा कानून पास करके एस्टेट ड्यूटी या मृत्यु कर लगाने का फैसला किया था। तब एक लाख रूपये से ऊपर की संपत्ति पर टैक्स लगाने की व्यवस्था थी। उस वक्त यह भी बहुत बड़ी रकम होती थी और इस पर टैक्स शुरू होता था 7.5 फीसदी से। मगर 20 लाख रूपये की संपत्ति के मालिक की मृत्यु पर 85 फीसदी तक टैक्स लगता था। तर्क यही था कि एक सीमा से ऊपर कमाने वालों को अपनी संपत्ति में से वापस समाज को हिस्सा देना चाहिए। मगर तब इस टैक्स को बचाने के लिए तमाम जुगत व जुगाड़ भी शुरू हुए और इस टैक्स का विरोध भी। तब भी 1985 तक यह जारी रहा। राजीव गांधी की सरकार में वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने फैसला किया कि इस टैक्स की वसूली में जितना झंझट और खर्च है, उसके मुकाबले न तो वसूली हो रही है और न ही इससे गैर-बराबरी खत्म करने का उद्देश्य पूरा हो रहा है। इसलिए यह टैक्स खत्म कर दिया गया।
 
उसके बाद भी बार-बार इस टैक्स की वापसी के सुझाव आते रहे हैं। 2012 में पी चिदंबरम इसके पक्ष में बोल रहे थे, तो उसके बाद एनडीए सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली और वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा, दोनों ही इसके पक्ष में तर्क देते रहे। हालांकि, आज भाजपा कांग्रेस पर इसके लिए हमलावर है, लेकिन अब उसके ही अपने नेताओं के पुराने बयान निकालकर दिखाए जाने लगे हैं। चूंकि, कांग्रेस घोषणापत्र जारी करते समय राहुल गांधी ने यह कहा था कि देश में किसके पास कितनी संपत्ति है, इसका एक सर्वे कराया जाएगा, तो सैम पित्रोदा के बयान के साथ जोड़कर यह मानना मुश्किल नहीं है कि उसके बाद अमीरों की संपत्ति लेकर गरीबों में बांटने का इरादा है।
 
ऐसे में, सवाल यह भी है कि दुनिया के जिन देशों में ऐसा टैक्स लग रहा है, क्या वहां आर्थिक समानता है? ब्रिटेन में तो इस वक्त मुद्दा गरम है कि क्या ऋषि सुनक की सरकार चुनाव से पहले विरासत पर टैक्स कम करने जा रही है? उनकी पार्टी चुनाव सर्वेक्षणों में कमजोर दिख रही है और यह संभावना बढ़ रही है कि वोटरों को लुभाने के लिए ऐसा कोई लोक लुभावन फैसला हो सकता है। अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों में इस टैक्स की ऊंची दरों के बावजूद क्या गरीब और अमीर की खाई कम हुई है? इसका जवाब कोई भी हां में नहीं दे सकता। 
 
मगर किसी भी संवेदनशील और जागृत समाज को इस सवाल से लगातार दो-चार होते रहना पड़ता है कि जो लोग तरक्की की दौड़ में पीछे छूटते जाते हैं, उन्हें सहारा देने के लिए क्या किया जाए? क्या मुफ्त राशन, मुफ्त घर और मुफ्त बिजली-पानी देते रहना ही काफी है या कुछ ऐसा करना होगा कि उन्हें रेस में बराबरी के मौके मिल सकें? आय कर हो या संपत्ति कर या विरासत पर कर, सबके पीछे भावना तो यही रही, पर कामयाबी मिलना आसान नहीं है। जिस दौर में भारत में मृत्यु कर लगा करता था, उस दौर में अमीरों को संपत्ति कर या वेल्थ टैक्स भी देना पड़ता था, जिनसे कोई खास फायदा नहीं हुआ, क्योंकि टैक्स इतना भारी था कि उसे बचाने के लिए कोशिश करना काफी मुनाफे का सौदा था। इसीलिए, ऐसे जुगाड़ और जतन करने का एक पूरा
कारोबार भी खड़ा हो गया।
 
अभी 'इन्हेरिटेन्स टैक्स' पर विवाद के बाद उद्योगपति हर्ष गोयनका ने एक्स पर पोस्ट में मार्के की बात लिखी है। उनका कहना है कि सारे व्यापारी कारोबारी इस टैक्स पर चिंतित थे। सैम पित्रोदा का शुक्रिया कि उन्होंने बात उठाई और सरकार का शुक्रिया कि उसने इतने जोर-शोर से इसका विरोध किया। हालांकि, उन्होंने चुटकी भी ली कि टैक्स बचाने का इंतजाम करने में लगी सीए बिरादरी को बड़े बिजनेस का नुकसान हो गया।