सियाचिन पर पूर्ण प्रभुत्व के 40 साल

40 साल पूर्व इसी महीने भारतीय सेना ने सियाचिन ग्लेशियर पर अपना पूर्ण प्रभुत्व कायम किया था। यदि भारत शांति के वादे के लिए अपने वीर सैनिकों द्वारा हासिल इस मुश्किल बढ़त को त्याग देता है, तो यह 1972 के विनाशकारी शिमला समझौते के समान होगा।

Pratahkal    25-Apr-2024
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Siachen Glacier
 
मारूफ रजा - चालीस वर्ष (40 years) हो गए, जब दुनिया को सबसे ऊंची व ठंडी चोटी और संभवतः सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सीमा रेखा पर पाकिस्तानी कब्जे को रोकने के लिए भारतीय सेना के पहले जत्थे को सियाचिन ग्लेशियर (Siachen Glacier) स्थित चौकी पर भेजा गया था। आखिर क्यों भारत (India) और पाकिस्तान (Pakistan) सियाचिन के पीछे पड़े थे? साफ है कि दोनों पक्षों के सीमा संबंधी दावे के अलावा भी बहुत कुछ था।
 
असल में, पाकिस्तानी 1960 के दशक में चीन में रची गई एक योजना पर काम कर रहे थे, जिसमें न केवल अक्साई चिन के उत्तरी हिस्सों को जोड़ना था, बल्कि 10 करोड़ एकड़ जमीन में ताजे पानी के स्रोतों (जो सियाचिन के पास हैं) का दोहन करना था, जिसकी चीन और पाकिस्तान को बेहद जरूरत थी। पाकिस्तान को अधिक बांधों और पनबिजली (बिजली) के लिए, जबकि चीन को माइक्रोचिप दिग्गज बनने के लिए। 30 सेमी वर्ग शीट सिलिकॉन वेफर्स बनाने के लिए 10,000 लीटर ताजा पानी को रेगिस्तानी रेत और रसायनों के साथ मिलाया जाता है। और उस क्षेत्र में बहुत सारे ग्लेशियर हैं, जिसे पाकिस्तान ने फरवरी मार्च, 1963 में चीन को सौंप दिया था।
 
सियाचिन शक्सगाम घाटी और अक्साई चिन के बीच है। इसलिए यह भारत के लिए रणनीतिक रूप से बेहद फायदेमंद है। कई लोग पहले इसके रणनीतिक महत्व को नहीं समझते थे, बस इसे अपनी भूमि मानते थे। सियाचिन ग्लेशियर के आसपास बर्फीली ऊंचाइयों पर भारत की सैन्य उपस्थिति अप्रैल, 1984 में भारत के तत्कालीन उत्तरी सेना कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल छिब्बर की सिफारिशों पर सरकारी अनुमति से शुरू की गई थी। लेकिन 'क्षेत्र का रणनीतिक महत्व तब भी उतना ज्यादा नहीं था', न ही हमारा उद्देश्य किसी क्षेत्र पर कब्जा करना था। यह केवल यह सुनिश्चित करने के लिए था कि हमारे साथ वैसा कुछ न हो, जैसा कि पचास के दशक की शुरूआत में अक्साई चिन में हुआ था, क्योंकि 1962 के चीनी आक्रमण के बाद से नई दिल्ली अपनी सीमाओं के पास मानचित्र संबंधी अस्पष्टताओं के प्रति काफी संवेदनशील रही है। वास्तव में सियाचिन पर विवाद मानचित्र संबंधी विवाद से उत्पन्न हुआ है। आज जिसे नियंत्रण रेखा कहा जाता है, वह 1949 में संघर्ष विराम रेखा थी। वास्तविक सीमा रेखा जम्मू के उत्तर से शुरू होकर एनजे 9842 नामक पर्वत की ऊंचाई पर अचानक समाप्त होती है। इसके अलावा, भारत- पाकिस्तान के बीच 1949 की कराची संधि और 1972 की सुचेतगढ़ संधि के अनुसार, ग्लेशियर नो मैन्स लैंड है। लेकिन 1970 के दशक से कई मानचित्रों में सियाचिन ग्लेशियर को पाकिस्तान के हिस्से के रूप में दिखाया जाने लगा था। इन सभी में संघर्ष विराम रेखा (अब एलओसी) स्पष्ट रूप से एनजे 9842 से उत्तर-पूर्व दिशा में काराकोरम दरें और चीनी सोमा तक फैली हुई दिखाई देती है। ऐसा तब तक पाकिस्तानी मानचित्रों में भी नहीं था।
 
जाहिर है, यह भ्रम कुछ मानचित्रों से पैदा हुआ है, जो शुरू में अमेरिकी रक्षा मानचित्रण एजेंसी द्वारा तैयार किए गए थे, जिसमें 1970-80 के दशक में एनजे 9842 पूर्वोत्तर के आसपास से काराकोरम दरें तक चलने वाली एलओसी को दर्शाया गया था। लगता है कि अमेरिका के मानचित्र निर्माताओं द्वारा यह गलती वायु रक्षा सूचना क्षेत्र के चिह्नों को एक सीमा रेखा के रूप में 'अनुवाद' करने के कारण हुई, जो नागरिक सैन्य विमानन में हवाई यातायात नियंत्रकों के लिए क्षेत्रीय सीमाएं प्रदान करता है।इससे यह भ्रम हुआ कि नियंत्रण रेखा का विस्तार एनजे 9842 से काराकोरम दरें तक हो गया और इस तरह यह पाकिस्तानियों की दिलचस्पी का विषय बन गया। हालांकि, ऐसे कई वायु रक्षा सूचना क्षेत्र हो सकते हैं, जो एक देश से होकर गुजर सकते हैं, पर ये राष्ट्रीय सीमा रेखाएं नहीं हैं। लेकिन दुनिया के कई प्रमुख एटलस द्वारा ऐसे मानचित्रों के प्रकाशन ने पाकिस्तानी सेना को एनजे 9842 से परे नियंत्रण रेखा पर विवाद के लिए प्रोत्साहित किया, और यहीं पर सियाचिन क्षेत्र स्थित है।
 
शुरू में जनरल जिया-उल-हक के शासन में महत्वाकांक्षी सैन्य कमांडरों द्वारा उकसाए जाने पर पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर के आसपास की हिमनद ऊंचाइयों पर कब्जा करने की योजना बनाई। लेकिन साल्टोरो रिज पाकिस्तान के दुस्साहस के खिलाफ हमारी रक्षा दीवार है। प्रारंभिक चरण में सियाचिन ग्लेशियर की पश्चिमी दीवार पर कब्जे की कोशिश में सैकड़ों लोग हताहत हुए। हालांकि भारतीय सेना ने वायुसेना की मदद से अपना कब्जा बरकरार रखा। वर्ष 1984 से 1987 तक हमारी सेना ने इसके लिए लड़ाई लड़ी और ऊंचाई पर नियंत्रण करके सियाचिन ग्लेशियर पर अपना पूर्ण प्रभुत्व जमाया। इसने पाकिस्तान को हैरान कर दिया और उसने भारतीय सेनाओं को वहां से हटाने की कई कोशिशें की, लेकिन वे विफल रहे। अब वे 1983 से पहले की स्थिति में लौटने की बात कर रहे हैं, क्योंकि पाकिस्तानी सेना को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है। और अब चूंकि पाकिस्तानी सेना साल्टोरो रिज पर भारतीय सैनिकों के कब्जे को वापस हटा नहीं सकती, इसलिए उसके सैनिकों को निचली घाटी में डेरा डालना होगा। हालांकि उसके सैन्य अधिकारियों ने 40 वर्षों से सियाचिन ऑपरेशन को लेकर अपने झूठ को फैलाया है। पाकिस्तानी मीडिया के एक वर्ग ने कहा कि भारत ग्लेशियर पर अपने सैनिकों को रखने का खर्च वहन नहीं कर सकता, जबकि भारत आसानी से खर्च वहन कर रहा है। सियाचिन में सैनिकों को रखने के लिए प्रति वर्ष लगभग 2,000 करोड़ रूपये की लागत भी भारत के रक्षा बजट का एक छोटा-सा हिस्सा है।
 
मुख्य रूप से भारत-पाक वार्ता के लिए भारत की शर्त है कि पाकिस्तान को भारतीय सैनिकों द्वारा ग्लेशियर के किनारे हासिल की गई बढ़त को स्वीकार करना चाहिए और किसी भी सेना की वापसी से पहले 110 किलोमीटर लंबी एक्चुअल ग्राउंड पोजिशन लाइन (एजीपीएल) को स्वीकार करना चाहिए। कारगिल अनुभव के बाद भारतीय सेना अब पाकिस्तान से मजबूत गारंटी चाहती है, जिसमें भारतीय सेना की स्थिति का सत्यापन, ग्लेशियर के साथ भारत के सैन्य बढ़त की पुष्टि करने वाले मानचित्रों पर हस्ताक्षर शामिल हैं। लेकिन पाकिस्तानी ऐसा करने को तैयार नहीं हैं। यदि भारत शांति के वादे के लिए अपने वीर सैनिकों द्वारा हासिल इस मुश्किल बढ़त को त्याग देता है, तो यह 1972 के विनाशकारी शिमला समझौते के समान होगा।