चुनाव मैदान में तेज जुबानी जंग

बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की समस्याएं ऐसे मसले हैं, जो लोगों को परेशान भी करते हैं और रह-रहकर सिर भी उठाते हैं, पर चुनाव के मुख्य विमर्श में इनके लिए बहुत जगह नहीं बनती।

Pratahkal    26-Mar-2024
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हरजिंदर - एक अंग्रेजी कहावत है कि सबसे कामयाब वह होता है, जो अपने ऊपर फेंकी गई ईंटों से अपना मकान बना लेता है। भारतीय राजनीति (Indian politics) में फिलहाल कामयाबी का यही रास्ता अपनाया जा रहा है। यहां तक कि जब कोई ईंट नहीं भी फेंक रहा होता है, तो ईंटें ईजाद की जाती हैं, अतीत और वर्तमान की जमीन खोदकर निकाली जाती हैं। पिछले दिनों तमाम कोशिशों के बाद प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार करने में कामयाब रहा। भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) भले ही इस गिरफ्तारी को अपने लिए फायदेमंद बता रही हो, लेकिन आम आदमी पार्टी इसमें एक नई संजीवनी सूंघ रही है। कुछ यही उम्मीद झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी बांधी है, जिसके नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी इन दिनों ईडी की हिरासत में हैं। अगर हम बात प्रधानमंत्री और भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की करें, तो उनके सामने हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल, दोनों ही इस राजनीति के कच्चे खिलाड़ी ही माने जाएंगे। याद कीजिए, साल 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव को । तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस (Congress) की नेता सोनिया गांधी ने वहां एक चुनावी रैली में राज्य सरकार के लिए 'मौत के सौदागर' शब्दों का इस्तेमाल किया था। भाजपा ने उनके इन्हीं शब्दों में निवेश किया और आसानी से चुनाव जीत लिया।
 
इसके ठीक सात साल बाद जब यही नरेंद्र मोदी दिल्ली के तख्त की दावेदारी पेश कर रहे थे, तब कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने उन्हें चाय वाला कहते हुए उनकी दावेदारी को खारिज करने की कोशिश की। अय्यर के इस बयान से मोदी को नया मकान खड़ा करने का पूरा मसाला मिल गया था। फिर उनका पूरा चुनाव अभियान ही 'चाय पर चर्चा' के आस-पास चला, जिसकी भारी कामयाबी अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है। पांच साल बाद नरेंद्र मोदी जब अगला आम चुनाव लड़ रहे थे, तब कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने रफाल विमानों की खरीद में घपले का जिक्र करते हुए यह फिकरा कसा, 'चौकीदार चोर है'। इस बार भाजपा इसी फिकरे को ले उड़ी। पार्टी के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखना शुरू कर दिया, 'मैं भी चौकीदार'।
 
इस बार भी भाजपा लंबे समय तक ऐसी किसी ईंट का इंतजार करती हुई दिखी। चुनाव की घोषणा से पहले हुई इंडिया गठबंधन की पटना में हुई एक रैली में लालू यादव ने नरेंद्र मोदी पर एक तंज कसा, 'मोदी का कोई परिवार ही नहीं है.. ।' लालू यादव ऐसी टिप्पणियों के लिए ही जाने जाते हैं। आमतौर पर उनकी ऐसी टिप्पणियां शाम को टेलीविजन की आधे घंटे की प्राइम टाइम बहस का विषय बनकर ही दम तोड़ देती हैं। जिस पर अगले दिन के अखबारों में महज एक-दो वाक्य ही छपते हैं। इस बार ईंट नहीं मिल रही थी, इसलिए यह सोचा गया कि इस ढेले को ही घर की दीवार में लगवा दिया जाए। मोदी ने अपने एक भाषण में इसका जवाब देते हुए कहा, 'पूरा देश ही मेरा परिवार है'। इसके बाद पार्टी के छोटे-बड़े तमाम नेता और कार्यकर्ता अपने एक्स हँडल में लिखने लगे, 'मोदी का परिवार' (Modi ka Parivar)
 
शायद इतना ही पर्याप्त नहीं था कि कुछ ही दिनों बाद राहुल गांधी ने अपने एक भाषण में 'शक्ति' शब्द का इस्तेमाल किया । भाजपा को इस शब्द में एक नई संभावना दिखाई दी। प्रधानमंत्री समेत पार्टी के सभी नेता यह कहने लगे कि इससे भारतीय संस्कृति और महिलाओं का अपमान हुआ है। बावजूद इसके कि राहुल गांधी ने जिस संदर्भ में इस शब्द का इस्तेमाल किया था और जिस संदर्भ में इसे अपमान बताया जा रहा था, वे दोनों ही एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे। चुनाव की जुबानी जंग में अब इस तरह के संदर्भ कोई भूमिका नहीं निभाते। विरोधी के शब्दों में नए अर्थ और नए रंग भरकर उन्हें उछालना ही इस नए दौर के चुनाव प्रचार की रीत है। अभी कुछ ही दिनों पहले तक यह सब नहीं था और अखबारों एवं टीवी विज्ञापनों के जरिये सरकार की उपलब्धियां गिनाई जा रही थीं, तब लग रहा था कि सरकार की उपलब्धियां इन चुनावों में बड़ा मुद्दा बनेंगी, लेकिन चुनाव की घोषणा के साथ ही उद्घाटनों के दौर और सरकारी खर्च पर चलने वाले ये विज्ञापन बंद हो गए, जिसके बाद चुनाव अभियान ने अपने असली रंग दिखाने शुरू कर दिए। हर पांच साल बाद होने वाले चुनाव से हम यही उम्मीद बांधते हैं कि इनसे एक राजनीतिक विमर्श का जन्म होगा। सरकार अपनी उपलब्धियों का पिटारा खोलकर अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश करेगी और विपक्ष उन उपलब्धियों की एक एक करके पोल खोलने के लिए मैदान में उतरेगा। वह सरकार की हर चीज में खोट ढूंढ़ेगा और उनके संदर्भ में जनता को अपनी नीतियों की अहमियत समझाने की कोशिश करेगा। इसी दौरान देश समाज को परेशान करने वाले जो मसले हैं, वे चर्चा में आएंगे और इन्हीं चर्चाओं से उन्हें खत्म करने की भी प्रतिबद्धता उपजेगी, लेकिन ये सब ऐसी हवाई सैद्धांतिक उम्मीदें हैं, जो चुनाव की चौखट पर अब नहीं उतरती हैं।
 
चुनाव को लगातार इस तरह के नैरेटिव में ढाला जा रहा है, जहां समाज के मूल मुद्दों के लिए बहुत गुंजाइश ही न काँग्रेस पार्टी बने । बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की समस्याएं ऐसे मसले हैं, जो लोगों को परेशान भी करते हैं और रह-रहकर सिर भी उठाते हैं, लेकिन चुनाव के मुख्य विमर्श में अब इनके लिए बहुत ज्यादा जगह नहीं बनती।
 
विपक्ष के लिए भी वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ज्यादा बड़ा मुद्दा बन जाती है, जो उन्हें भी कई बार जिता चुकी है। पिछले कुछ समय से चुनाव अभियान में 'लाभार्थी' शब्द खूब इस्तेमाल होने लगा है, लेकिन इसको लेकर भी कोई सार्थक बहस सामने नहीं आई है। देश के पूरे राजनीतिक वर्ग ने कहीं न कहीं यह स्वीकार कर लिया है कि आधुनिक प्रबंधन के साथ ही सोशल मीडिया, फेक न्यूज और विज्ञापनों वगैरह की बतकही से ही चुनाव की बाजी जीती जा सकती है। जो बड़े मुद्दे हैं, वे घोषणापत्र के हवाले कर दिए जाते हैं, फिर उनकी ज्यादा चर्चा भी नहीं होती। हमारे देश में राजनीति सफलता की कहानी कुछ सरल फॉर्मूलों तक सीमित कर दी गई है।