आलोक जोशी: चुनाव (Loksabha elections) का बिगुल बज चुका है। चुनाव की तारीखें आने के बाद अब वादों और इरादों की लाइन लगने वाली है। यह भारत में ही नहीं, दुनिया में सबसे बड़े चुनावों का साल है। भारत में तो लोकसभा के साथ-साथ कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे, मगर अब पूरी तैयारी दिख रही है कि एक देश एक चुनाव की तरफ बढ़ने का इंतजाम हो जाए इसकी सिफारिश करने वाली कोविंद समिति ने कहा है कि एक साथ चुनाव होने से इस मद में खर्च कम होगा और इसका असर देश की जीडीपी में बड़े उहाल के रूप में भी सामने आएगा। समिति ने बताया है कि साथ-साथ चुनाव कराने से जीडीपी में लगभग बे प्रतिशत की बढ़त होगी, यानी साढ़े चार लाख करोड़ रूपये अर्थव्यवस्था में और जुड़ जाएंगे।
इस दावे पर कई तरह के विवाद हो सकते हैं और होंगे भी सभी जानना चाहेंगे कि देश की तरक्की में ऐसी तेजी लाने वाला जादुई फॉर्मूला क्या है? पिछले दो-तीन दशकों में तमाम अर्थशास्त्री इस बात को भी मानने लगे हैं कि चुनाव अर्थव्यवस्था की रफ्तार तेज करने में भी भूमिका निभाते हैं। खासकर चुनाव खर्च की वजह से गरीबों और ग्रामीण इलाकों में जो नकद रकम लोगों के हाथ में पहुंचती है, वह सीधे बाजार में आकर मांग बढ़ाने का काम करती हैं। कुछ ही समय पहले अर्थशास्त्रियों ने यह अनुमान जोड़ा है कि साल 2024 के चुनाव में राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार करीब एक लाख करोड़ रूपये का खर्च करेंगे और इससे इसी तिमाही के दौरान जीडीपी में करीब आधा प्रतिशत की तेजी आ सकती है। विवाद की गुंजाइश तो इस दावे में भी है, लेकिन चुनाव को लेकर उससे बड़ा विवाद है मुफ्तखोरी का |
मुफ्त बिजली बस इतना कहना काफी है सब समझ जाते हैं कि बात राजनीति की हो रही है। हालांकि, गूगल पर यही टाइप करें, तो सामने रिजल्ट आते हैं कि आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'प्रधानमंत्री सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना' का फायदा कैसे उठा सकते हैं? देश भर के एक करोड़ घरों को इस योजना का लाभ मिल सकता है। हर एक घर को 30 हजार से लेकर 78 हजार रूपये तक का फायदा मिल सकता है और तीन सौ यूनिट बिजली भी फ्री हो जाएगी। यह योजना अपने आप में खासी आकर्षक है, लेकिन क्या लोग भूल गए कि साल 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की एक बड़ी वजह उसका मुफ्त बिजली, पानी का वादा भी था। एक बार सरकार बनाने के बाद उसने इसे लागू किया, तो यह लगने लगा कि उसे दिल्ली की सत्ता से कोई अलग कर ही नहीं सकता। कुल मिलाकर 27 राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों में सरकारें किसी न किसी तरह मुफ्त या रियायती बिजली देने के इंतजाम में लगी थीं। बिजली मंत्रालय के आंकड़े दिखाते हैं कि यह होड़ शुरू होने के पहले ही, यानी साल 2020-21 में सस्ती बिजली पर सरकारें मिलकर सवा लाख करोड़ रूपये से ज्यादा की भरपायी सब्सिडी देकर कर रही थीं।
मुफ्त बिजली, मुफ्त अनाज, टैबलेट, लैपटॉप, मोबाइल या ऐसी तमाम चीजों के वादे चुनाव अभियान का हिस्सा बनते हैं और पार्टियां एक-दूसरे पर वोटरों को खरीदने का आरोप लगाने के साथ खुद भी इस फेहरिश्त को बढ़ाने में भागीदार बनती रहती है। अब इनमें से ज्यादातर चीजों पर बहस हो सकती है कि ये चुनावी रेवड़ियां हैं या देश-प्रदेश की बड़ी आबादी के लिए अब यह जरूरी हो चुकी हैं।
अब मुफ्त शिक्षा और मिड-डे मील योजना के औचित्य पर बहस बंद हो चुकी है, और इनको सबने स्वीकार कर लिया है। इस सदी के शुरूआती सालों में चुनावी सभाओं में धोती या साड़ी बांटने से आगे बढ़ते हुए द्रमुक ने साल 2006 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव से पहले रंगीन टेलीविजन बांटने का वादा कर दिया। तब से वहीं नहीं, बल्कि पूरे देश में मानो होड़ लग गई, एक से एक बड़कर वादे करने और फिर उस हिसाब से खर्च करने की अब तो मामला लोगों के हाथों में सीधे नकद रकम रखने तक पहुंच गया है। यह किस्सा पिछले लोकसभा चुनाव का है जब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जीतने पर न्याय योजना लागू करने का वादा किया। इसके तहत हरेक परिवार को हर महीने बारह हजार रूपये सीधे बैंक खाते में देने की व्यवस्था होनी थी। विशेषज्ञों ने हिसाब जोड़ा कि ऐसे ही भारत की जीडीपी का पांच से दस प्रतिशत हिस्सा जन-कल्याण योजनाओं पर खर्च होता है। उनका कहना था कि अगर 'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' या सबको कुछ पैसा देने वाली न्याय योजना या ऐसा कुछ और होता है, तो उस पर भी लगभग इतना ही खर्च होगा। यह रकम कहां से आएगी?
लेकिन इन सवालों के बीच ही केंद्र की मोदी सरकार ने किसानों के लिए किसान सम्मान निधि योजना लागू करने का एलान किया। कोरोना के हमले के बाद जो मुफ्त अनाज योजना शुरू हुई, वह तो लगता है कि अब अनंतकाल तक चलने वाली है। इसके मुकाबले काम के बदले अनाज या मनरेगा जैसी योजनाएं ज्यादा फायदेमंद हैं या नहीं, इस पर विद्वान आज भी एकमत नहीं दिखते। दोनों ही पक्षों के पास अपने-अपने तर्क हैं।
साल 1936 में मशहूर अर्थशास्त्री कीन्स ने जो व्याख्या दी है, उसके हिसाब से आर्थिक तरक्की को तेज करने और रोजगार पैदा करने के लिए सरकारों को बुनियादी तांचे पर खर्च तेजी से बढ़ाना चाहिए ।