राजनीति के अपराधीकरण की बीमारी

कहने को तो हर दल दागी नेताओं से दूरी बनाने की बात करता है, लेकिन चुनावों में उनकी जीतने की क्षमता देखकर उन्हें भी चुनाव मैदान में उतारता हैं

Pratahkal    11-Mar-2024
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Politics - Pratahkal
 
संजय गुप्त : पश्चिम बंगाल (West Bengal) के संदेशखाली (Sandeshkhali) इलाके पश्चिम ने करीब दो माह पहले देश का ध्यान तब अपनी ओर खींचा था, जब राशन घोटाले (ration scam) के आरोपित और तृणमूल कांग्रेस (Trinamool Congress) के एक बाहुबली नेता शाहजहां शेख (Shahjahan Sheikh) के गुंडों ने प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) यानी ईडी (ED) की टीम पर हमला किया था। इस भीषण हमले में ईडी के कई अधिकारी घायल हो गए थे। उनके साथ गए सुरक्षाकर्मियों को भी जान बचाने के लाले पड़ गए थे। ईडी ने इसकी शिकायत कलकत्ता उच्च न्यायालय में की, क्योंकि पुलिस शाहजहां शेख को गिरफ्तार करने में शिथिलता दिखा रही थी। ममता सरकार ने उसकी गिरफ्तारी में दिलचस्पी लेने बजाय यह फर्जी आड़ ली कि उच्च न्यायालय ने ही उसे गिरफ्तार करने पर रोक लगा रखी है। इस बीच शाहजहां शेख के फरार हो जाने से संदेशखाली में उसके सताए हुए लोग और विशेष रूप से वहां की महिलाओं ने उसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। इसके बाद भी ममता सरकार ने उसकी गिरफ्तारी के लिए कोई प्रयत्न नहीं किए। आखिर जब उच्च न्यायालय ने फटकार लगाई तो दो दिन के अंदर उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इससे यही संकेत मिला कि बंगाल पुलिस उसे जानबूझकर गिरफ्तार नहीं कर रही थी और शायद उसे यह पता था कि वह कहां छिपा है।
 
ममता सरकार (Mamata Government) शाहजहां शेख के प्रति हद से ज्यादा नरमी बरत रही थी, इसका पता तब भी चला, जब कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश (high court orders) के बाद भी उसे सीबीआई (CBI) के हवाले करने से मना किया गया। शाहजहां शेख को सीबीआई को न सौंपना पड़े, इसके लिए ममता सरकार ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) का दरवाजा तक खटखटाया। उसने उसकी याचिका पर तुरंत सुनवाई से इन्कार कर दिया। तब भी बंगाल पुलिस (Bengal police) उसे सीबीआइ के हवाले करने को तैयार नहीं हुई। आखिर जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने फिर यह आदेश दिया कि ऐसा किया ही जाए, तब उसने उसे सीबीआई को सौंपा। उच्च न्यायालय को इसलिए कड़ाई बरतनी पड़ी, क्योंकि ममता सरकार के रवैये को देखते हुए इसके आसार नहीं थे कि संदेशखाली में ईडी की टीम पर हमला और महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं की सही तरह जांच हो सकेगी। इसके आसार इसलिए नहीं दिख रहे थे, क्योंकि संदेशखाली में जमीन कब्जाने और महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं की जांच के लिए जो भी वहां जाना चाहते थे, उन्हें बंगाल पुलिस ने रोकने की कोशिश की। यह पहली बार नहीं, जब बंगाल सरकार ने अपने किसी बाहुबली नेता को बचाने की कोशिश की हो या फिर सीबीआइ अथवा ईडी की जांच में असहयोग किया हो । घपले-घोटालों के साथ हिंसा की कई घटनाओं में ऐसा देखने को मिल चुका है। तृणमूल कांग्रेस के कई नेता घोटाले और हिंसा भड़काने के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। इनमें कुछ वे भी हैं जो मंत्री पदों पर थे, जैसे राशन घोटाले और शिक्षा भर्ती घोटाले के • आरोपित इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ममता सरकार ने पिछले विधानसभा चुनावों के बाद हुई व्यापक हिंसा के आरोपितों के खिलाफ कार्रवाई करने में किस तरह आनाकानी की थी। यह आनाकानी इसीलिए की गई थी, क्योंकि आरोपित नेता और कार्यकर्ता तृणमूल कांग्रेस के थे। ममता सरकार एक ओर अपने भ्रष्ट एवं आपराधिक प्रवृत्ति वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती और दूसरी ओर जब न्यायपालिका के आदेश पर केंद्रीय एजेंसियां उनके विरूद्ध जांच करती हैं तो वह उनके दुरूपयोग का आरोप लगाती है।
 
तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल मोदी सरकार पर यह आरोप लगाते ही रहते हैं कि सीबीआई और ईडी का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि आखिर न्यायपालिका इन एजेंसियों की गिरफ्त में आए नेताओं को कोई राहत क्यों नहीं दे रही है? यह एक तथ्य है कि अपराधी प्रवृत्ति के नेताओं को राजनीति का संरक्षण मिलता है। ऐसे कुछ नेता तो राजनीतिक दलों का संरक्षण पाकर विधायक, सांसद और मंत्री तक बन जाते हैं। इसी कारण जनता के बीच यह धारणा व्याप्त है कि नेताओं और अपराधियों का गठजोड़ टूट नहीं रहा है। यह इस गठजोड़ का ही परिणाम है कि विधानसभाओं और संसद में ऐसे नेताओं की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही, जिन पर गंभीर आरोप हैं। ऐसे नेता यह आड़ लेते हैं कि उनके खिलाफ जो भी मामले हैं, वे बदले की राजनीति से प्रेरित हैं। यह आड़ खोखली ही है, क्योंकि एमपी एमएलए अदालतों की ओर से ऐसे नेताओं को सजा सुनाने का सिलसिला कायम है। इस सिलसिले के बाद भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक नहीं लग पा रही है, क्योंकि नेताओं के मामलों का निपटारा होने में समय लग रहा है। उच्चतर न्यायपालिका की ओर से चारा घोटाले में सजा पाए लालू यादव के मामलों का निस्तारण अभी तक नहीं हो सका है। उनके खिलाफ एक मामला नौकरी के बदले जमीन का भी है।
 
दागी नेताओं के खिलाफ समय पर कार्रवाई न हो पाना और अदालतों में उनके मामलों का लंबा खिंचना एक गंभीर समस्या है। इसके चलते ही राजनीति के अपराधीकरण पर प्रभावी लगाम नहीं लग पा रही है। कहने को तो हर दल दागी नेताओं से दूरी बनाने की बात करता है, लेकिन चुनावों में उनकी जीतने की क्षमता देखकर उन्हें भी चुनाव मैदान में उतारता है। ऐसे में राजनीति में दागी नेताओं का प्रवेश रोकने की जिम्मेदारी जनता की है। शाहजहां शेख का मामला यही बताता है कि पुलिस किस तरह सब कुछ जानते हुए भी आपराधिक प्रवृत्ति वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने से कतराती है। कई मामलों में बंगाल पुलिस तृणमूल कांग्रेस की शाखा के रूप में काम करती दिखी है। इससे यही पता चलता है कि पुलिस किस प्रकार सरकार के इशारे पर अपने संवैधानिक दायित्वों की अनदेखी करती है। हो सकता है कि आम चुनावों के अवसर पर राजनीतिक दल बाहुबल की राजनीति के खिलाफ लड़ाई लड़ने बातें करें, लेकिन आशंका यही है कि अच्छी-खासी संख्या में दागी छवि वाले नेता चुनाव मैदान में उतर सकते हैं। इनमें कई ऐसे भी होंगे, जिनके मामले अदालतों में लंबित होंगे। इस स्थिति को सुधारने के लिए न्यायपालिका को और अधिक सजग होना होगा । उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि दागी नेताओं के मामलों का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर हो।