धर्मस्थलों की वापसी का अभियान

हिंदू समाज किसी अन्य के उपासना स्थल नहीं चाहता। उसका लक्ष्य तो केवल अपने धर्म-संस्कृति स्थलों की पुनर्स्थापना का है...

Pratahkal    06-Feb-2024
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The fight for Hindu temples continues - Pratahkal 
कैप्टन आर. विक्रम सिंह : एक दौर वह भी था जब मजहबी जुनून के वशीभूत बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने अयोध्या में रक्तपात करते हुए राम मंदिर का ध्वंस किया और उसी के अवशेषों पर मस्जिद खड़ी कर दी। बाबर के दौर से शुरू हुआ यह सिलसिला औरंगजेब के दौर में अपने चरम पर पहुंच गया। इसी सिलसिले में कई मंदिरों को ध्वस्त कर उन्हीं के स्थान पर उनकी सामग्री से ही मस्जिद जैसे ढांचे खड़े कर दिए गए। वाराणसी में ज्ञानवापी ऐसा ही उदाहरण है, जहां मंदिर तोड़ मस्जिद खड़ी कर दी गई। बीते दिनों इस मंदिर के एक तलगृह में 1993 के बाद हिंदू पक्ष को फिर से पूजा करने की अनुमति मिली। अदालती खींचतान जारी है। वाराणसी जैसी स्थिति मथुरा की भी है।
 
अयोध्या में आज जिस स्थान पर भव्य राम मंदिर अपनी अलौकिकता, दिव्यता एवं भव्यता से करोड़ों आस्थावानों को अभिभूत कर रहा है, उसके निर्माण की राह कतई आसान नहीं रही। यह दिसंबर 1949 की बात है, जब मंदिर के खंडहरों पर बने ढांचे में रामलला की मूर्तियां दृष्टिगत हुई। वह भी एक लंबी कहानी है। सिटी मजिस्ट्रेट गुरूदत्त सिंह और जिला मजिस्ट्रेट केके नायर ने संकीर्ण राजनीतिक पक्षधरता को धत्ता बताते हुए वह निर्णय लिया, जिसने अयोध्या में मुक्ति के लिए सैंकड़ों वर्षों से चले आ रहे संघर्ष को सार्थक दिशा दी। शांति व्यवस्था जिला मजिस्ट्रेट का क्षेत्राधिकार है। उन्होंने मूर्तियां नही हटवाई। प्रधानमंत्री नेहरू हाथ मलते रह गए। नेहरू जी का एजेंडा ही भारत में हिंदू- पुनर्जागरण की संभावनाओं को रोकना था। इसीलिए स्वतंत्र भारत में कथित इतिहासकार यही सिद्ध करते रहे कि राम-कृष्ण काल्पनिक चरित्र हैं। रामायण और महाभारत केवल कल्पना हैं। यह तो प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता बीबी लाल थे, जिन्होंने रामायणकालीन स्थलों को खोजकर इस विवाद पर विराम लगाया। फिर भी विरोधी खेमे ने हार नहीं मानी। वह साक्ष्यों को अदालतों में शपथपत्र लगाकर खारिज करता रहा। 
 
भारत प्राचीन काल से एक बड़ी आर्थिक शक्ति एवं वैश्विक अर्थ साम्राज्य का संचालक रहा है। उसकी रणनीति तो शक्तिशाली सेनाओं की होनी चाहिए थी, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं किया गया। गांधार और सिंध से पराजयों का क्रम प्रारंभ हुआ। जबरदस्त प्रतिरोध के बाद भी शत्रु संहार की एकीकृत रणनीति के अभाव में मजहबी आक्रांता भारतभूमि में प्रवेश करते गए। धार्मिक भारत अपने योद्धाओं को एक होकर धर्मयुद्ध के लिए ललकार नहीं सका। अयोध्या की भूमि पर कितने ही युद्ध हुए। कनिंघम गजेटियर के अनुसार बाबर के सिपहसालार मीर बाकी के साथ हफ्तों चले युद्ध में मंदिर का ध्वंस और हजारों हिंदुओं का बलिदान हुआ। एक बार तो पंजाब से आए निहंग सिख योद्धाओं ने एक हफ्ते तक विवादित ढांचे पर कब्जा बनाए रखा। अंग्रेजों के राज में 1885 से चला आ रहे इस कानूनी विवाद का पटाक्षेप 9 नवंबर, 2019 को उच्चतम न्यायालय के निर्णय के साथ हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस्लामिक आक्रांताओं ने भारत में हिंदुओं के हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया। ध्वंसावशेषों के उपयोग से मस्जिदों से लेकर खानकाहें तक बनाए गए। उन आक्रांताओं से भारत के अंतिम निर्णायक युद्ध का समय निकट आ रहा था। मराठों ने अंतिम मुगल शासकों को बंधुआ स्थिति में रख छोड़ा था। राजपूताना भी मुगलों के वर्चस्व से बाहर आ रहा था। दक्षिण भारत में भी इन आक्रांताओं को चुनौतियां मिलने लगी थीं। संभवतः कुछ ही वर्षों में सुल्तानों, मुगलों और नवाबों का यह काल एक लंबे दुःस्वप्न के समान भारतभूमि से सदा सर्वदा के लिए विदा हो जाता, लेकिन एकाएक यूरोपीय शक्तियों विशेषकर अंग्रेजों के आगमन ने समीकरण बदल नया अध्याय जोड़ दिया। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत की समृद्धि के आधार स्तंभों को नष्ट कर आर्थिक शोषण का आर्थिक साम्राज्य खड़ा करना था। उन्होंने केवल हिंदू मुस्लिम विभाजन का ही उपयोग नहीं किया, बल्कि और भी जितनी विभाजक रेखाएं बना सकते थे, बनाते गए।
 
फिर 1857 के संग्राम के उपरांत अंग्रेज और सावधान हो गए। उन्होंने हिंदू धर्म के विरूद्ध प्रछन्न सामाजिक शैक्षणिक अभियान चलाया। मंदिरों की मुक्ति का हमारा वह लक्ष्य विदेशी शिक्षाओं के प्रभाव में दिशा भटक गया। जो लोकतंत्र अंग्रेज लेकर आए, उसमें मुस्लिम पृथक निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ से थी। फलस्वरूप 20वीं शताब्दी का तीसरा दशक भीषण सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ा। पाकिस्तान का निर्माण उसकी परिणति सिद्ध हुआ। दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर में अलगाववादी मानसिकता को हवा देकर अंग्रेज एक विभाजित राष्ट्र की भूमिका लिख गए थे। आज भी वहां से अलगाव के स्वर सुनाई पड़ते रहते हैं। बीते दिनों ही कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के भाई और कांग्रेस सांसद डीके सुरेश कुमार ने दक्षिण के राज्यों का अलग देश बनाने का एक विभाजनकारी शिगूफा छेड़ा।
 
अंग्रेज जो अंतरिम सरकार छोड़ गए थे, उसके लिए भारतीय संस्कृति, हिंदू धर्म और मंदिर आदि मुख्यधारा के मुद्दे ही नहीं थे। ऐसे में, राम मंदिर का अयोध्या में अपने पूर्ण भव्य रूप में प्रकट होना और प्रधानमंत्री मोदी को बालक राम की आरती करते देखना हमारी सनातन सभ्यता के लिए गर्व एवं परम आह्लाद का अवसर रहा। आज कृष्ण जन्मभूमि और ज्ञानवापी मंदिर भी कानूनी सुरंगों से बाहर आ रहे हैं। इन दोनों मंदिरों के बारे में तो ऐसे किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं कि उन्हें तोड़कर वहां मस्जिदें बनाई गई। ध्वंस किए गए अन्य धर्मस्थलों की वापसी के लिए भविष्य में कितनी याचिकाएं दायर होंगी, इसका आकलन भी संभव नहीं । धर्मस्थलों की वापसी का यह अभियान किसी भी रूप में सांप्रदायिक नहीं है। हिंदू समाज उन मंदिरों को ही वापस मांग रहा है, जो उसके अपने थे और जिन्हें मजहबी आक्रांताओं ने ध्वंस कर उन पर अपने ढांचे खड़े किए थे। अब हिंद समाज उन धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों को बिना किसी दुर्भावना के अपनी उसी पूर्व की स्थिति में लाना चाह रहा है, जैसे वे सैंकड़ों वर्ष पूर्व थे। हिंदू समाज किसी अन्य पंथ के उपासना स्थल कदापि नहीं चाहता । उसका लक्ष्य तो केवल धर्म-संस्कृति के अपने स्थलों की पुनस्थापना का है। राम मॉदर की पुनस्थापना इस सांस्कृतिक लक्ष्य की स्पष्ट उद्घोषणा ही तो है।