चुनावी दहलीज पर दस्तावेजी जंग

श्वेत पत्र हो या काला पत्र, दोनों में आंकड़ों के जरिये अपने विरोध पक्ष को घेरने का प्रयास किया गया है। यह संकेत है कि लोकसभा चुनाव काफी आक्रामक होने वाला है।

Pratahkal    10-Feb-2024
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Documentary war on the threshold of elections
 
नीरजा चौधरी: आम चुनाव (General elections) से पहले 'पेपर वॉर' ('PaperWar') की आम शुरूआत हो गई है। गुरूवार की सुबह कांग्रेस (Congress) ने एनडीए (NDA) के पिछले दस सालों के कार्यकाल को 'अन्याय काल' बताते हुए 'काला पत्र' ('Black Paper') जारी किया, तो शाम ढलते-ढलते यूपीए सरकार के 10 वर्षों के आर्थिक कुप्रबंधन (economic mismanagement) पर सरकार की तरफ से 'श्वेत पत्र' ('White Paper') संसद में पेश किया गया। इस पत्र को पेश करने की बात वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitaraman) ने अपने बजट भाषण में ही कर दी थी।
 
दोनों पत्रों में आंकड़ों के आधार पर अपने विरोधी पक्ष को घेरने का प्रयास किया गया है । यह इस बात का भी संकेत है कि आने वाला लोकसभा चुनाव काफी आक्रामक होने वाला है। अमूमन चुनावों में प्रचार बढ़ने के साथ-साथ नेताओं के तेवर गरम होते जाते हैं, लेकिन इस बार सियासी मिजाज में यह तीखापन पहले से ही दिख रहा है। सरकार के श्वेत पत्र से पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और सांसद शशि थरूर ने जिस तरह से आंकड़ों के साथ केंद्र सरकार, विशेषकर भाजपा को आड़े हाथों लिया, वह बताता है कि विपक्ष चुप बैठने को तैयार नहीं है। सरकार की तरफ से भी कोई मुरव्वत नहीं बरती जा रही ।
यह इस बार के आम चुनाव की अहमियत को दर्शाता है। जाहिर है, भाजपा हर हाल में सरकार बनाना चाहती है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह तीसरा कार्यकाल होगा और वह अगले 1,000 वर्षों | में देश को खुशहाली के मामले में शिखर पर पहुंचाने की अपनी 'गारंटी' को एक मजबूत बुनियाद देना चाहते हैं । इसका जिक्र वह बार-बार करते भी रहे हैं। उधर, विपक्ष जानता है कि अगर इस बार वह बुरी तरह पिटा, तो उसके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो सकता है। 'करो या मरो' की यह स्थिति सिर्फ कांग्रेस के ही नहीं, कई अन्य क्षेत्रीय दलों के सामने भी है।
 
यही वजह है कि कोई भी पक्ष मौका छोड़ना नहीं चाहता। इसमें यह 'दस्तावेजी जंग' उनके लिए मददगार हो सकती है। दरअसल, श्वेत पत्र एक प्रामाणिक दस्तावेज होता है। इसमें दर्ज आंकड़े सच माने जाते हैं, जिनको शायद ही चुनौती दी जाती है। इसी कारण वक्त-वक्त पर सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग विपक्ष करता रहता है। अभी पेगासस या पनामा पेपर्स मामले में भी हमने ऐसा होते देखा है। मगर श्वेत पत्र में सरकार की सोच, उसकी नीतियां, आगामी कार्ययोजनाओं के उसके प्रस्ताव पर जनता से रायशुमारी की झलक भी दिखती रही है। साल 1948 में ही तत्कालीन केंद्र सरकार ने कश्मीर विवाद पर भारत की स्थिति साफ करने के प्रयास में जम्मू-कश्मीर पर एक श्वेत पत्र जारी किया था। 1951 में प्रिवी पर्स पर जारी श्वेत पत्र को भी कमोबेश सरकार द्वारा अपनी मंशा स्पष्ट करने की श्रेणी में रखा जा सकता है। मगर अयोध्या पर आया श्वेत पत्र कुछ मामलों में अलग था । वह वर्ष 1993 का फरवरी माह था, जब नरसिंह राव सरकार ने अयोध्या पर श्वेत पत्र जारी किया था । उसमें यह विस्तार से बताया गया था कि किस तरह यह आंदोलन अपने चरम पर पहुंचा, किस तरह बाबरी मस्जिद को गिराया गया, यह घटना क्यों हुई, कौन जिम्मेदार था आदि मगर इसके महज दो महीने के भीतर भाजपा ने भी एक श्वेत पत्र जारी किया, जिसमें उसने केंद्र सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा किया था। यह किसी पार्टी द्वारा श्वेत पत्र जारी करने का संभवत: पहला मामला था ।
 
राज्य सरकार भी इन सबमें पीछे नहीं रही है । पिछले दिनों ही तेलंगाना में रेवंत रेड्डी सरकार ने पूर्व की तेलंगाना राष्ट्र समिति ( अब भारत राष्ट्र समिति) सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ श्वेत पत्र जारी किया था । वह बहुत कुछ वैसा ही था, जैसा अभी राजग गठबंधन ने यूपीए सरकार के खिलाफ पेश किया है। हालांकि, दोनों में एक बुनियादी अंतर यह है कि रेवंत रेड्डी ने यह कदम सरकार में आते ही उठाया, जबकि केंद्र सरकार ने इसके लिए पूरा 10 साल का वक्त लिया है। श्वेत पत्र संविधान का हिस्सा नहीं, बल्कि यह संसदीय परंपरा का अंग है। यह किसी भी सरकार की प्रतिबद्धता का संकेत है। हालांकि, इसमें बताए गए आंकड़ों के अलग-अलग विश्लेषण किए जाते रहे हैं । मिसाल के तौर पर, अयोध्या पर जारी श्वेत- पत्रों में ही आंकड़ों की समानता के बावजूद कांग्रेस सरकार और भाजपा ने एक-दूसरे को घेरने की कोशिश की थी। अभी के पत्रों में ही सकल घरेलू उत्पाद दर को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष का विश्लेषण अलग-अलग है।
 
किसी भी लोकतंत्र में श्वेत पत्र को सम्मान की नजर से देखा जाता है। औद्योगिक घराने भी इसे जारी करते रहे हैं। माना जाता है कि जितनी सूचनाएं लोगों तक आएंगी, वह लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छी हैं। इससे जनता को सच का पता चलेगा और उसे अपनी राय बनाने में मदद मिलेगी। अभी ही, सत्ता पक्ष और विपक्ष यदि मुद्दों और आंकड़ों के आधार पर एक-दूसरे पर हमला करें, तो वह ठीक ही है। कोई यहां पूछ सकता है कि एनडीए जब अपने तीसरे कार्यकाल को लेकर इतना आश्वस्त है, तो उसे भला श्वेत पत्र लाने की जरूरत क्यों पड़ी ? यह इसलिए किया गया है, क्योंकि चुनावी गणित में भाजपा एक भी गलती नहीं करना चाहती। वह नहीं चाहती कि कोई भी सीट वह खो दे। चूंकि उत्तर भारत में उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन हमने 2019 के चुनावों में देख लिया है, इसलिए वह अपने इस प्रदर्शन को बरकरार रखने के साथ-साथ दक्षिण भारत में भी खुद को मजबूती से स्थापित करना चाहती है। ऐसे में, वह 'स्विंग वोटर्स' को खोने का जोखिम नहीं मोल लेना चाहेगी।
 
ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देशों में भी श्वेत पत्र की एक स्वस्थ परंपरा रही है। मगर अपने देश में जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हुआ है, उससे यही अंदेशा होता है कि यह अब चुनाव का 'पिंग पांग बॉल' बन गया है। लिहाजा यह अंदेशा अस्वाभाविक नहीं कि आने वाले दिनों में हम इसमें तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने जैसे आरोप सुनें। अगर ऐसा होता है, तो श्वेत पत्र की विश्वसनीयता घेरे में आ सकती है। श्वेत पत्र को तथ्यों की मुनादी तक ही सीमित रखना बेहतर होगा। इसे चुनावी लड़ाई का हथियार बनाने से लोकतंत्र के इस तंत्र को नुकसान हो सकता है।