बिहार तो सिर्फ एक झलक है

नीतीश कुमार का पाला बदलना अनैतिक हो सकता है, पर कांग्रेस की अगुआई वाले "इंडिया" गठबंधन ने इसे होने दिया । इस स्थिति के लिए कांग्रेस और गांधी परिवार, खासकर राहुल गांधी पूरी तरह जिम्मेदार हैं, जिन्होंने सीट समायोजन के लिए गठबंधन में आम सहमति बनाने के बजाय न्याय यात्रा को चुना |

Pratahkal    30-Jan-2024
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india alliance
रशीद किदवई। नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के पाला बदल लेने से विपक्षी दलों के बीच जो अराजकता और बेचैनी बढ़ी है, उसके जिम्मेदार वे स्वयं हैं। बेशक नीतीश कुमार का पाला बदलना अनैतिक हो सकता है, पर कांग्रेस की अगुआई वाले 'इंडिया' गठबंधन (India Alliance) ने इसे होने दिया। जून, 2023 से, जब 'इंडिया' गठबंधन अस्तित्व में आया, कमेटी राज, कई शक्ति केंद्र, एक ही पार्टी को प्रमुखता और संवाद की कमी ने इसका संकेत दे दिया था । यह सुनने में भले अजीब लगे, लेकिन कुछ अस्पष्ट कारणों से कांग्रेस ने अपने ही पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने या गठबंधन का अध्यक्ष बनने से इन्कार कर दिया । इसने एक क्षेत्रीय क्षत्रप को संयोजक के पद से वंचित करने, गठबंधन सचिवालय की स्थापना करने या नेतृत्व के मुद्दे को निपटाने की संभावनाओं को खत्म कर दिया।
 
इस तरह से, इस गड़बड़ी की जिम्मेदारी पूरी तरह से कांग्रेस और गांधी परिवार की है, खासकर राहुल गांधी की, जिन्होंने सीट समायोजन के लिए गठबंधन में आम सहमति बनाने के बजाय न्याय यात्रा को चुना। गांधी परिवार को अफसोस हो रहा होगा कि कैसे उन्होंने नीतीश को 'इंडिया' गठबंधन का संयोजक बनाकर शांत करने का सुनहरा मौका गंवा दिया। सभी लोग जब नीतीश को संयोजक बनाने पर सहमत हो गए थे, तब राहुल ने कथित तौर पर तर्क दिया कि चूंकि ममता बनर्जी नहीं थीं, इसलिए उनकी सहमति ली जानी चाहिए।
 
अगले दो सप्ताह तक राहुल इसे या तो भूल गए या नजर अंदाज करने का फैसला लिया। ममता के साथ कोई बातचीत नहीं हुई, अंततः निराश नीतीश ने भाजपा के साथ मिलने का फैसला किया। भाजपा की रणनीति 2024 के चुनाव में अपनी संभावनाओं को मजबूत करने से ज्यादा विपक्षी गठबंधन को लोकसभा सीटों से वंचित करने से प्रेरित है। अब मई, 2024 के बाद की पटकथा लिखने की कोशिश हो रही है, जिसमें क्षेत्रीय दल कांग्रेस को दोषी ठहराने की योजना बना रहे हैं। कांग्रेस के भीतर भी राहुल के वफादार नेता खरगे को दोषी ठहराने में रूचि रखते हैं, जबकि कांग्रेस के भीतर आम तौर पर लोग राहुल के खिलाफ हैं। प्रियंका गांधी की अनुपस्थिति संकेत देती है कि 10 जनपथ के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। मई, 2024 के बाद कांग्रेस में औपचारिक विभाजन को खारिज नहीं किया जा सकता है।
 
नीतीश कुमार के इस पालाबदल से जहां विपक्षी गठबंधन को तगड़ा झटका लगा है, वहीं आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत की संभावनाएं और मजबूत हुई हैं। हालांकि हिंदी पट्टी में भाजपा की स्थिति मजबूत है, पर पार्टी किसी तरह का जोखिम लेना नहीं चाहती थी। इसलिए नीतीश को अपने पाले में लाकर उसने कांग्रेस के नेतृत्व वाले 'इंडिया' गठबंधन की जो थोड़ी भी संभावना थी, उसे ध्वस्त कर दिया है।
 
महत्वपूर्ण भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव था। भाजपा की रणनीति है कि विपक्षी गठबंधन की एकता को झटका देकर कैसे उसे लोकसभा सीटों से वंचित रखा जाए। पश्चिम बंगाल और पंजाब में पहले ही इंडिया गठबंधन में दरार पैदा हो गई है, हालांकि तृणमूल कांग्रेस और आप अभी इंडिया गठबंधन में बने हुए हैं।
इसके अलावा, भाजपा लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वह एक और राज्य में सत्ता में साझेदार बन गई है और जदयू के लिए राहत की बात है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उसके नेता नीतीश कुमार ही बने हुए हैं। जब-जब भाजपा और जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा है, उसके नतीजे अच्छे ही आए हैं। पछली बार लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जदयू के साथ मिलकर बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी। राज्य में मुख्यमंत्री कौन बनेगा, उससे ज्यादा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू होने वाली है, विपक्ष ताश के पत्ते की तरह ढह रहा है।
 
एक और बात है, जो विपक्षी खेमे को बांधे हुए है। अधिकांश विपक्षी नेता यह भी जानते हैं कि राहुल 2024 में प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते हैं। वह तब तक दावेदार नहीं होंगे, जब तक कि कांग्रेस 2024 में अप्रत्याशित रूप से अच्छा प्रदर्शन नहीं करती। राहुल की योजना के अनुसार, जब तक कांग्रेस लोकसभा में आधे का आंकड़ा या 272 सीटें नहीं प्राप्त कर लेती, तब तक इस प्रतिष्ठित पद का दावा नहीं करेगी ।
 
विपक्षी एकता के बारे में कहना जितना आसान है, उतना करना नहीं । अतीत में कई ऐसे मौके आए हैं, जब विभिन्न दलों एवं विचारधाराओं के लोग 1977, 1989, 1996, और 2004 में एकजुट हुए। वर्ष 1977 में जब शक्तिशाली इंदिरा गांधी को पराजित किया गया था, तो विपक्षी जहाज को सहारा देने के लिए एक लंगर था। जयप्रकाश नारायण की पहल पर चार प्रमुख विपक्षी पार्टियां कांग्रेस (ओ), जनसंघ, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय लोक दल 23 जनवरी 1977 को एकजुट हुईं और जनता पार्टी बनाई। इसी तरह, 1989 में दक्षिणपंथी और वामपंथी दल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ राजीव गांधी को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया, हालांकि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी । 2004 में भी जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा को कांग्रेस से कम सीटें मिलीं, तो वीपी सिंह और माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को पर्दे के पीछ से कांग्रेस के करीब लाने का काम किया। फिर यूपीए का गठन हुआ, जिसने दस वर्षों तक राज किया। इस तरह से युग-निर्माण के हर मौके पर एकता के लिए मुश्किल से कुछ महीने काम किया गया। अब जबकि अप्रैल-मई में होने वाले
जैसे हालात हैं, अगर कांग्रेस को 100 सीटें भी मिल जाएं, तो वह खुद को भाग्यशाली समझेगी। इस प्रकार, अनौपचारिक रूप से विपक्षी दलों को भरोसा है कि प्रधानमंत्री का पद किसी क्षेत्रीय नेता को मिलेगा, जो 30 से अधिक सीटें पाने और गैर-कांग्रेसी समूहों के बीच स्वीकार्यता हासिल करने की क्षमता रखता हो।
 
राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा ने विपक्ष की योजनाओं पर पानी फेर दिया। मोदी को हराने के लिए विपक्ष ने किसी विश्वसनीय लड़ाई या बाहरी मौके की उम्मीद खो दी। क्षेत्रीय दलों को उम्मीद थी कि राहुल और सोनिया गांधी सक्रिय होंगे, सुधारात्मक उपाय करेंगे और अधिकार की भावना छोड़ेंगे। जब उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखा, तो उन्होंने अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी। बिहार में जो हुआ है, वह एक झलक मात्र है। यह आखिरी झटका नहीं है। 'इंडिया' गठबंधन में उद्धव ठाकरे से लेकर अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव से लेकर शरद पवार तक कई लोग समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं और अपनी-अपनी रणनीति बना रहे हैं।