ममता के 'एकला चलो' राग का इशारा

पश्चिम बंगाल में विपक्षियों के बीच अगर आगे सुलह की स्थिति नहीं बनी, तो भाजपा के चुनावी रथ के आगे निकलने की संभावनाओं को ही बल मिलेगा ।

Pratahkal    27-Jan-2024
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ममता के एकला चलो राग का इशारा
 
प्रभाकर मणि त्रिपाठी: पश्चिम बंगाल में विपक्षी महागठबंधन के रथ के पहिये फंसते दिखने लगे हैं। राज्य में गठबंधन के तीनों सहयोगियों तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और वाम मोर्चा के बीच महीनों चले विवाद और आरोप- प्रत्यारोप के बाद आखिर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में अकेले चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है। विपक्षियों के बीच अगर सुलह की स्थिति नहीं बनी, तो भाजपा के रथ के आगे निकलने की संभावना बढ़ जाएगी। विपक्षी दलों की सिर फुटव्वल का फायदा भाजपा को मिलेगा ही, मंदिर मुद्दे पर ध्रुवीकरण से भी उसे मदद मिलेगी।
 
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की 'भारत जोड़ न्याय यात्रा' के पश्चिम बंगाल में प्रवेश से ठीक पहले ममता बनर्जी के इस एलान से विपक्षी गठबंधन की कोशिशों को करारा झटका लगा है। कांग्रेस और वाम मोर्चा के नेता ममता पर भाजपा के साथ गोपनीय तालमेल के आरोप लगाते रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि ममता भी इन दोनों पर यही आरोप लगाती रही हैं। एक दिन पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने ममता को मौकापरस्त बताते हुए याद दिलाया था कि वह कांग्रेस की मदद से ही पहली बार सत्ता में पहुंची थीं। यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि तृणमूल कांग्रेस ने वर्ष 2011 का वह चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था, पर उसके बाद कांग्रेस हर चुनाव वाम के साथ मिलकर लड़ती रही है।
 
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल ने 22 और भाजपा ने 18 सीटें जीती थीं। बाकी 2 सीटें कांग्रेस की झोली में गईं। बीते महीने ऐसी अपुष्ट खबरें सामने आई थीं कि ममता कांग्रेस को पिछली बार जीती उसकी दोनों सीटें, यानी बहरमपुर और मालदा दक्षिण ही देने के लिए तैयार हैं। उसके बाद से ही दोनों दलों के बीच तनातनी चल रही थी। ममता ने राज्य में सीटों के बंटवारे के लिए 31 दिसंबर की समय-सीमा तय की थी, लेकिन वह काफी पहले खत्म हो चुकी है। ममता ने हाल में पार्टी की एक आंतरिक बैठक में कहा था कि कांग्रेस और वाम के कथित अड़ियल रवैये के कारण अगर उनको सीटों के बंटवारे में अहमियत नहीं मिली, तो पार्टी अकेले अपने बूते सभी 42 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार है। इसके बाद कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने एलान किया था कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के साथ तालमेल के बजाय अकेले लड़ेगी। उसके बाद ही ममता बनर्जी ने रवींद्रनाथ टैगोर की कविता 'एकला चलो' की तर्ज पर अकेले ही लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। हालांकि, राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी कुछ भी स्थायी नहीं होती, इसलिए ममता बनर्जी के एलान के बावजूद कांग्रेस के साथ सीटों पर समझौता हो सकता है।
 
ममता की इस घोषणा से कांग्रेस चिंतित है। राहुल गांधी की यात्रा ने गुरूवार को असम से बंगाल में प्रवेश किया। यात्रा जिस उत्तर बंगाल इलाके से होकर गुजरेगी, वहां भाजपा की जमीन मजबूत है। चाय बागान से घिरे इस इलाके में आदिवासी और स्थानीय जनजातियां ही निर्णायक हैं। राहुल करीब 14 साल बाद इलाके में पहुंचेंगे। इससे प्रदेश कांग्रेस को अपनी खोई जमीन वापस पाने की उम्मीद है। यह भी एक वजह है कि प्रदेश नेतृत्व ममता को आंखें दिखा रहा था। इसके विपरीत, राहुल गांधी ने गुवाहाटी में कहा कि उन्होंने ममता बनर्जी और नीतीश कुमार को यात्रा में शामिल होने का न्योता दिया है। इतना ही नहीं, राहुल गांधी ने ममता को अपना करीबी बताते हुए कहा था कि प्रदेश के नेताओं की टिप्पणी कोई खास मायने नहीं रखती ।
 
हालांकि, ममता बनर्जी ने तल्खी के साथ यह कह दिया है कि राहुल की यात्रा के बारे में उन्हें अंधेरे में रखा गया, यानी इसकी पूरी जानकारी नहीं दी गई। लगे हाथ उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि वह या पार्टी का कोई प्रतिनिधि यात्रा में शामिल नहीं होगा।
 
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बंगाल में गठबंधन की राह हमेशा सर्पाली और उलझन भरी रही है। ममता यहां सबसे बड़ी और सत्तारूढ़ पार्टी होने के कारण सब कुछ अपनी शर्तों पर तय करना चाहती हैं। अयोध्या और राम मंदिर के प्रभाव की भी ममता को ज्यादा चिंता नहीं है, क्योंकि पश्चिम बंगाल शुरू से ही दूसरे राज्यों के मुकाबले काफी हद तक धर्मनिरपेक्ष रहा है। वर्ष 1992 में भी विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद यहां देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले कम हिंसा हुई थी। इस तथ्य के बावजूद कि यहां मुसलमानों की आबादी करीब 30 फीसदी है। पहले यह वाम मोर्चा का वोट बैंक था और उसके बाद तृणमूल के पाले में आ गया। राज्य में धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण का सिलसिला वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में शुरू हुआ, जिसका फायदा भाजपा को मिला और वह दो से बढ़कर 18 सीट तक पहुंच गई। इसमें एक अहम भूमिका उन मतदाताओं की भी थी, जो कांग्रेस और वाम मोर्चा की ओर से भगवा पार्टी की ओर खिसक गए थे। वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में भी बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण की कोशिश हुई, पर भाजपा अबकी बार 'दो सौ पार' के नारे से काफी दूर रह गई।
 
ध्यान रहे, अयोध्या में प्राण- प्रतिष्ठा के दिन देश के दूसरे हिस्सों की तरह बंगाल में भी खासकर हिंदीभाषी इलाकों में काफी उत्साह देखने को मिला। तमाम जगह पोस्टर, बैनर और झंडे लगे थे और मंच बनाकर कहीं राम कथा आयोजित की गई, तो कहीं भजन- कीर्तन चल रहा था, पर बांग्लाभाषियों का बहुसंख्यक तबका इससे दूर ही रहा। बावजूद इसके भाजपा को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव में यह लहर उसके काम आएगी और वह राज्य में अपनी सीटों की तादाद बढ़ाने में कामयाब रहेगी। भाजपा के एक नेता दावा करते हैं कि राज्य में मंदिर मुद्दे पर आम लोगों में पैदा हुए उत्साह का असर चुनाव पर जरूर पड़ेगा और हम पहले के ज्यादा सीटें जीतेंगे।
 
मुकाबले राजधानी कोलकाता समेत राज्य के तमाम प्रमुख शहरों में हिंदी भाषियों तादाद है। की अच्छी-खासी इस तबके के अलावा बांग्लाभाषियों के एक सीमित तबके पर भी अयोध्या मुद्दे का असर रहेगा, पर लाख टके का सवाल है कि क्या यह असर चुनाव पर भी देखने को मिलेगा? भाजपा का दावा है, ऐसा ही होगा। वहीं सभी 42 सीटों पर लड़ने की इच्छुक तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि इतिहास गवाह है, बंगाल के चुनाव में मंदिर मस्जिद जैसे धार्मिक मुद्दे बेअसर ही रहते हैं।
 
समाजशास्त्रियों का कहना है कि आगामी चुनाव में इसका कोई खास असर भले नहीं पड़े, पर अयोध्या ने इस राज्य में भी एक नए सामाजिक और धार्मिक बदलाव की शुरूआत कर दी है। देखना है, भाजपा इसका पूरा फायदा कब तक ले पाएगी?