चुनावी दांव-पेच और पत्रकारिता

पत्रकार भी खुद को पक्षकार के तौर पर पेश करने में हिचक नहीं महसूस कर रहे। उनके चेहरों से ही समझा जा सकता है कि वे "इनके" हैं या "उनके" । यह पत्रकारिता के लिए भला है या बुरा ? पत्रकारों को ही इस पहेली का हल बूझना होगा । वे किसी निष्कर्ष पर पहुंचें, न पहुंचें, पर इतना तय है कि राजनीतिक फिजाओं में आने वाले दिनों में फूल नहीं, कांटे खिलने वाले हैं।

Pratahkal    19-Sep-2023
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Political Polarization and Journalism
शशि शेखर.. चौंकाने वाली यह खबर रांची से आई। जनपद के ठाकुर गांव स्थित पब्लिक स्कूल में एक नाटक मंचित किया गया- ‘जो गूगल कर सकता है, वह तेरा भगवान नहीं कर सकता' । बच्चों ने इस मंचन का वीडियो बनाया, जो आनन-फानन में कई लोगों तक पहुंच गया। कुछ लोगों को लगा कि यह सनातन धर्म का अपमान है।
 
नतीजतन, तमाम अभिभावकों ने स्कूल पर प्रदर्शन किया और रोष के इस ज्वार को देख स्कूल प्रबंधन ने संबंधित शिक्षक को निकाल बाहर किया। आक्रोश से उबलते लोगों का आरोप था कि अध्यापक महोदय दूसरे मजहब से ताल्लुक रखते हैं, इसलिए उन्होंने जान-बूझकर हमारे धर्म का अपमान किया । सच्चाई कुछ भी हो, पर हमें आने वाले दिनों में अपने बीच पनप रहे कुछ नए विवादों और विद्वेषों के लिए तैयार रहना होगा ।
 
राजनीति जब समाज का उपयोग करने लग जाए, तब यही होता है।
दुराव का यह दौर अचानक नमूदार नहीं हुआ। तमिलनाडु के युवा मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने पिछले दिनों एक सभा में सनातन धर्म और सनातनियों के लिए ऐसे शब्द बोले, जिनसे उत्तर भारत के लोग आहत हो गए। उदयनिधि प्रदेश के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र हैं। उन्हें तमिलनाडु के सत्तारूढ़ परिवार का राजनीतिक वारिस माना जाता है। वैसे, उदयनिधि ने कुछ नया नहीं कहा। द्रमुक के संस्थापक अन्नादुरई ने 1950 और 1960 के दशक में ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन छेड़ा था। उनकी बातें समाज के पिछड़े और दलित वर्गके मन को सहलाती थीं । इसी का नतीजा था कि उनकी अगुवाई में सन 1967 में पहली बार तमिलनाडु में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। तब से आज तक देश की सबसे पुरानी पार्टी इस प्रदेश की सत्ता में वापसी नहीं कर सकी है। यह बात अलग है कि कांग्रेस और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम वर्षों से सहयोगी हैं।
राग-द्वेष राजनीति में देश, काल और समाज के हिसाब से मुखौटे बदल लेते हैं।
 
यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी की आईटी सेल और उनकी विचारधारा से सहमति रखने वाले लोगों ने सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को लपक लिया । अन्नादुरई ने आधी शती पहले जो अंगारे तमिलनाडु में कुरील बोए थे, उसकी तपिश फटाफट खबरों के इस युग में अब उत्तर और पश्चिम भारत में महसूस की जा रही है। तमिलनाडु के बहुसंख्यक मतदाताओं को अगर अन्नादुरई के विचार प्रभावित करते हैं, तो उनके विरोधी सुर विंध्य के इस पार मतदाताओं के सबसे बड़े वर्ग को एकजुट करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
 
भारतीय जनता पार्टी और एनडीए के लिए यह चौतरफा लाभ का सौदा है।
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की जनसभाओं में इसीलिए इस मुद्दे का जिक्र छेड़ा। साथ ही साथ तय हो गया कि भारतीय जनता पार्टी के लिए अब यह चुनावी मुद्दा बन गया है। अयोध्या में राम मंदिर का लोकार्पण इस अभियान को और बल प्रदान करने वाला साबित हो सकता है। दरअसल, प्रधानमंत्री के पीछे एकजुट एनडीए
भली-भांति जानता है कि यदि हिंदू धर्म के मानने वाले लोग जाति के बजाय धार्मिक पहचान को वरीयता देंगे, तो पिछड़ों और अति पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियों को जबरदस्त नुकसान पहुंच सकता है। 'इंडिया' ब्लॉक के ज्यादातर दल इन्हीं समीकरणों के दम पर राज करते आए हैं।
 
उदयनिधि, ए राजा और उन जैसे अन्य लोगों ने जाने-अनजाने भारतीय जनता पार्टी के हाथ में एक पुरजोर सियासी हथियार थमा दिया है।
 
प्रधानमंत्री के लंबे और सफल राजनीतिक करियर पर गहराई से नजर डाल देखिए । आप समझ जाएंगे कि वह धर्म, समाज और कल्याणकारी योजनाओं का लाभकारी चुनावी रसायन बनाने में महारत रखते हैं। मध्य प्रदेश की ही एक जनसभा में पिछले दिनों उन्होंने समान नागरिक संहिता का समर्थन कर दिया था। इसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की इस पुरानी मांग को नए तेवर और कलेवर प्रदान कर दिए। सनातन अगर धार्मिक मुद्दा है, तो समान नागरिक संहिता धर्म और समाज के सबसे बड़े वर्ग को अपने पक्ष में करने की जुगत इसी तरह, 'एक देश, एक चुनाव' का आह्वान करके प्रधानमंत्री साबित करना चाहते हैं कि किस्म-किस्म के चुनावों पर होने वाले भयंकर खर्च को इससे रोका जा सकता है। इन चुनावों के दौरान लगने वाली आचार संहिता भी कई हफ्तों के लिए तमाम विकास कार्यों पर रोक लगा देती है। अगर चुनाव एक साथ होंगे, तो प्रगति के काम भी निर्बाध तौर पर जारी रह सकेंगे । वे तय समय में पूरे हो सकेंगे, ताकि लोग इनका लाभ उठा सकें ।
 
एक बड़ा तबका इस प्रस्ताव का समर्थकहै।
'इंडिया' ब्लॉक को इन सधी हुई राजनीतिक चालों का तार्किक जवाब देना होगा, पर अभी तक उस पक्ष से राजनीतिक प्रतिरोध के स्वरों के अलावा कोई ठोस कार्य-योजना सामने नहीं आई है। क्या इंडिया जनता पार्टी और जनता दल के पुराने फॉर्मूले के जरिये चुनावी रण जीतने की जुगलबंदी कर रहा है या, उसके नेताओं को सही वक्त का इंतजार है? जिस गठबंधन में इतने अनुभवी सियासी सूरमा शामिल हों, उनसे यह उम्मीद तो कतई नहीं की जा सकती कि वे एनडीए की राजनीतिक पेशबंदी का मतलब नहीं समझ पा रहे होंगे।
 
इसी बीच 'इंडिया' ब्लॉक ने कुछ पत्रकारों की एक सूची जारी करते हुए उनके बहिष्कार का निर्णय जग जाहिर किया है। सत्ता पक्ष इसे आपातकाल लागू करने वालों की मानसिकता का नया कारनामा बता रहा है, तो इंडिया के लोग तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे रहे हैं कि आपने भी बरसों बरस एक टीवी चैनल का बहिष्कार किया था। तमाम राजनीतिक दल कुछ एंकर अथवा चैनलों का बहिष्कार करते आए हैं, पर यह पहली बार हुआ है कि सामूहिक तौर पर एक सूची जारी कर दी जाए। इससे कुछ ऐसे पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की बन आएगी, जो खुलेआम अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता जाहिर करने से नहीं हिचकते। आपने अक्सर फटाफट खबरों वाले चैनलों में चीख-पुकार मचाते या जहर बुझे शब्दों का इस्तेमाल करते प्राणी देखे होंगे। उनके नाम के साथ राजनीतिक विश्लेषक या '... के जानकार' दर्ज होता है।
 
वस्तुतः, सियासी दल या उनसे जुड़े संगठन खबरिया चैनलों को अपने प्रवक्ताओं के साथ इस तरह के शब्दवीर भी मुहैया कराते हैं, ताकि दर्शकों को लगे कि तटस्थ लोग तक इस या उस पक्ष के समर्थक हैं। उत्तर सत्य के लावे में झुलसती इस दुनिया में तटस्थता ने भी अपने नए लिबास पहन लिए हैं। पत्रकार भी खुद को पक्षकार के तौर पर पेश करने में हिचक नहीं महसूस कर रहे। उनके चेहरों से ही समझा जा सकता है कि वे 'इनके' हैं या 'उनके' ।
 
यह पत्रकारिता के लिए भला है या बुरा? पत्रकारों को ही इस पहेली का हल बूझना होगा। वे किसी निष्कर्ष पर पहुंचें, न पहुंचें, पर इतना तय है कि राजनीतिक फिजाओं में आने वाले दिनों में फूल नहीं, कांटे खिलने वाले हैं।