राजनीतिक गोलबंदी की बदलती प्रकृति

भारत में दलित एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों में आकार ले रही लाभार्थी चेतना ने उन्हें मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं के करीब ला खड़ा किया है.....

Pratahkal    17-Sep-2023
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Dalit Politics  
बद्री नारायण : संसदीय चुनाव (Parliamentary Elections) की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। चुनावों को ध्यान में रखकर द्विध्रुवीय गोलबंदी होने लगी है। एक तरफ राजग के घटक खुद को नए सिरे से संगठित कर रहे हैं तो दूसरी ओर भाजपा (BJP) विरोधी दल आइएनडीआइए यानी 'इंडिया' (India) जैसे नए मंच के माध्यम से अपनी रणनीति को धार देने में लगे हैं। वहीं कुछ दल हैं, जिन्होंने अभी तक अपना खेमा नहीं चुना या कुछ ऐसे भी हैं जो 'एकला चलो रे' की राह पर बढ़ गए हैं।
 
बसपा ऐसा ही एक दल है, जिसकी प्रमुख मायावती ने स्पष्ट किया कि उनकी पार्टी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी और संसदीय चुनाव अकेले ही लड़ेगी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भी बसपा अकेले ही चुनाव लड़ेगी। मायावती और बसपा न केवल उत्तर प्रदेश, बल्कि पूरे देश में दलित एवं बहुजन सामाजिक समूहों की स्वतंत्र सी दिखने वाली राजनीति के प्रतीक माने जाते हैं। इससे प्रश्न उठने लगा है कि मायावती की इस घोषणा का आगामी चुनावी राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी बसपा का जनाधार है। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अधिकांश राज्यों में बसपा जीतने की स्थिति में भले न हो, लेकिन हार-जीत में अंतर जरूर पैदा कर सकती है।
 
मायावती और बसपा के छितरे मतों की मौजूदगी की संभावना से शायद ही किसी को इन्कार हो, किंतु दलित राजनीति के अध्ययन के क्रम में मुझे बार-बार यही अनुभूति हुई कि पिछले दशक में दलित वर्गों की सामाजिक- राजनीतिक मनोवृत्ति काफी बदली है। वस्तुतः, दलित समूहों में जाति भाव के बजाय उनमें विकसित हो रही गतिशीलता, आर्थिक उन्नयन एवं विकास के आकांक्षी भाव से ही उनकी राजनीतिक गोलबंदी आकार ले रही है। कस्बों, शहरों और गांवों में इन समूहों की राजनीतिक गोलबंदी की प्रक्रिया को समझने के क्रम में यही महसूस होता है कि इन सामाजिक समूहों में 'जातीय मानस' की जगह आर्थिक आकांक्षाओं का मानस प्रभावी होने लगा है। दलित मानस में एक प्रकार का 'इकोनमिक्स' प्रभावी होने की प्रक्रिया तेज हुई है।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) और भाजपा द्वारा बीते एक दशक में दलितों के लिए आरंभ की गई विकास योजनाओं और उनके लगभग सफल निष्पादन ने संसाधनों को उनके बीच पहुंचाया है। सरकारी संसाधनों के जनतांत्रिक विभाजन के प्रयासों ने उनके भीतर गतिशीलता के आकांक्षी भाव को सशक्त किया है। उनके दैनंदिन जीवन में रोटी एवं आवास की समस्या प्रधानमंत्री अन्न योजना एवं प्रधानमंत्री आवास योजना से कम हुई है। इससे इन सामाजिक समूहों के भीतर आगे बढ़ने की चाह और बलवती हुई है।
 
आधारभूत समस्याओं के लगभग समाधान ने इन सामाजिक समूहों के भीतर बेहतर जीवन की आकांक्षा के भाव को मजबूत किया है। इन परिवर्तनों ने उन्हें 'दलित' से ज्यादा एक ऐसे 'लाभार्थी' समूह में बदल दिया है, जो अपनी राजनीतिक गोलबंदी तय करने के लिए 'जाति' से ज्यादा अपनी आर्थिक एवं विकास संबंधी जरूरतों को महत्वपूर्ण मानने लगा है। इन सामाजिक समूहों में एक 'लाभार्थी चेतना' विकसित होने लगी है, जो पारंपरिक जातीय चेतना को कमजोर करते हुए नई राजनीतिक गोलबंदी की दिशा निर्मित करने लगी है। 'दलित' (Dalit) से ज्यादा गरीब, गरीबी एवं गरीबी से मुक्ति का भाव उनकी बातचीत में मुखर होने लगा है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने 'गरीबी से मुक्ति' के मिशन की बात भी की। मायावती स्वयं भी 'गरीब' शब्द 'गरीब विरोधी' राजनीति जैसे प्रत्ययों का बारंबार इस्तेमाल करने लगी हैं।
 
भारत में दलित एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों (social groups) में आकार ले रही इस लाभार्थी चेतना ने उन्हें मध्यवर्गीय आकांक्षाओं के करीब ला खड़ा किया है। शायद पिछले दशक में हुए सरकारी प्रयासों एवं उनमें विकसित हो रही नई आकांक्षाओं के कारण गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लगभग 13 करोड़ लोग अभी हाल में मध्यवर्ग की श्रेणी में जुड़े हैं। एक आंकड़े के अनुसार 1974 में भारत की कुल आबादी का 55 प्रतिशत, जिनमें 56 प्रतिशत ग्रामीण एवं 49 प्रतिशत शहरी आबादी शामिल रही, वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन- बसर कर रही थी। वर्ष 2021 में उनकी संख्या घटकर 33 प्रतिशत रह गई है। इस मध्य वर्ग में रूपांतरित हुए गरीब समूह का सर्वाधिक हिस्सा दलित एवं अति पिछड़े सामाजिक समूहों का ही है। भारत में जनतांत्रिक प्रयासों से हो रहे इन परिवर्तनों ने दलित समूहों के सामाजिक प्रोफाइल एवं अपेक्षाओं दोनों में बदलाव किया है।
 
हाल में नगरीकरण की प्रक्रिया जिस प्रकार से तेज हुई है, उसने भी हाशिये पर बसे समूहों में पैसे की आवाजाही तेज की है, जिससे उनकी 'जड़ता' टूटी है एवं उनमें आगे बढ़ने की चाह बढ़ी है। उक्त परिवर्तनों ने दलित समूहों की सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन तो किया ही है, उनमें उत्पन्न नए भावों ने उनकी जाति आधारित गोलबंदी की जगह लाभार्थी आकांक्षाओं पर आधारित राजनीतिक लामबंदी की प्रक्रिया भी तेज की है। इसके बावजूद अधिकांश विश्लेषक, पत्रकार और राजनीतिक दलों के रणनीतिकार दलित समूहों में राजनीतिक गोलबंदी की पारंपरिक प्रकृति में आ रहे इन परिवर्तनों को समझ नहीं पा रहे हैं। परिणामस्वरूप वे अभी भी जाति के प्रतिशतों के आधार पर इन समूहों की राजनीतिक गोलबंदी को समझने की कोशिश में लगे हैं।
 
इसी आधार पर मायावती और बसपा की राजनीतिक हैसियत का भी आकलन किया जा रहा है। जबकि जरूरी यह है कि हम आज दलित समूहों में आधार तल पर उनकी आकांक्षाओं, उनके बदलते प्रोफाइल एवं उनकी गतिशीलता को समझ कर उनके भविष्य की राजनीति एवं राजनीतिक गोलबंदी का मूल्यांकन करें। हालांकि, यह कहते हुए मैं कहीं से भी उनके भीतर निहित अस्मिता के सम्मानबोध की इच्छा को नकार नहीं रहा हूं, किंतु जरूरत है कि हम समझें कि अगर सामाजिक आधार में परिवर्तन हो रहा है, तो उससे जुड़ी राजनीति एवं राजनीतिक गोलबंदी की प्रकृति में परिवर्तन भी स्वाभाविक है। जो इन परिवर्तनों को नहीं समझेगा, उसके पांव के नीचे से जमीन का खिसकना तय है, चाहे वे राजनीतिक दल के रणनीतिकार हों या विश्लेषक । हमें यह मानना ही होगा कि समय, समाज और राजनीति तीनों ही तेजी से बदल रहे हैं।