राजीव सचान... यह अच्छा है कि औपनिवेशिक युग के आपराधिक कानूनों को बदले जाने वाले प्रस्तावित तीन विधेयकों- भारतीय न्याय संहिता (Indian Judicial Code), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Indian Civil Defense Code) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रारूपों पर गृह मामलों की संसदीय समिति ने विचार-विमर्श शुरू कर दिया है। वैसे तो इन विधेयकों पर पहले भी विचार हो चुका है, लेकिन यह भी आवश्यक था कि इन पर विभिन्न दलों के सांसद भी चिंतन-मनन करें ताकि आम सहमति कायम हो सके और वे आसानी से पारित होकर कानून बन सकें ।
आशा की जाती है कि संबंधित संसदीय समिति में शामिल सांसद दलगत हितों से ऊपर उठकर इन विधेयकों पर विचार करेंगे। यह अपेक्षा इसलिए, क्योंकि कुछ दल यह सवाल उठा चुके हैं कि इन विधेयकों का नाम हिंदी में क्यों है? इस प्रश्न का इसलिए कोई मूल्य - महत्व नहीं, क्योंकि इनका नाम भले ही हिंदी में हो, लेकिन उन्हें अंग्रेजी में ही तैयार किया गया है-ठीक वैसे ही जैसे अन्य विधेयक तैयार किए जाते हैं।
यह सही है कि अंग्रेजों के बनाए कानूनों में समय-समय पर संशोधन हुए, लेकिन वे अभी भी औपनिवेशिक छाप लिए हुए हैं। इन कानूनों का जोर दंड देने पर अधिक था और न्याय देने पर कम । ये कानून लैंगिक समानता के अनुरूप भी नहीं हैं। कई मामलों में यह देखने में आया है कि यदि कोई अपराध पुरूष करे तो वह दंड का भागीदार होता है, लेकिन वही अपराध महिला करे तो नहीं । प्रस्तावित आपराधिक कानूनों का एक उद्देश्य लोगों को समय पर न्याय उपलब्ध कराना भी है, लेकिन जब तक न्यायालयों की कार्यप्रणाली नहीं बदलती तब तक इस लक्ष्य को प्राप्त कर पाना कठिन है।
निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय मुकदमों के बोझ से दबे हैं। उच्च न्यायालयों के साथ उच्चतम न्यायालय में भी बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट में ऐसे लंबित मामलों की संख्या 24 हजार से अधिक है, जो पांच वर्ष से लंबित हैं। दस वर्ष से लंबित मामलों की संख्या आठ हजार से अधिक है। 204 मामले ऐसे हैं, जो 20 वर्ष से लंबित हैं। इसका अर्थ है कि सुप्रीम कोर्ट भी समय पर न्याय नहीं दे पा रहा है। उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 60 लाख से अधिक है और निचली अदालतों में लंबित मामले चार करोड़ के आंकड़े को पार कर गए हैं।
निःसंदेह इसका एक कारण न्यायाधीशों की कमी है, लेकिन यदि तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम रहता है और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ भी जाती है तो भी बात बनने वाली नहीं। स्पष्ट है कि समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए न्यायिक तंत्र में भी सुधार अनिवार्य हो चुके हैं। यह विचित्र है कि हर क्षेत्र में सुधार हो रहे हैं, लेकिन न्यायिक क्षेत्र में सुधारों पर केवल चर्चा करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है।
अदालतों में लंबित करोड़ों मामले केवल लोगों को हताश - निराश ही नहीं करते, वे देश की प्रगति में बाधक भी बनते हैं, क्योंकि करोड़ों लोगों के संसाधन और समय अदालतों के चक्कर लगाने में जाया होता है। इसके अलावा समय पर न्याय न मिलने से विकास के कई काम अटके पड़े रहते हैं। साफ है कि सरकार को न्यायिक क्षेत्र में भी सुधार के लिए सक्रिय होना ही होगा । उसे ऐसी ही सक्रियता पुलिस एवं प्रशासनिक सुधारों के मामले में भी दिखानी होगी। पुलिस सुधारों पर सुप्रीम कोर्ट ने जो दिशानिर्देश 2006 में दिए थे, उन पर सही तरह अमल अब तक नहीं हो पाया है।
इसका कारण यह है कि कोई भी सरकार पुलिस सुधारों के लिए प्रतिबद्ध नहीं । प्रशासनिक सुधार भी अटके पड़े हैं । द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बनाया गया था। पता नहीं उसकी रपट किस ठंडे बस्ते में है? अपेक्षित प्रशासनिक सुधार न होने के दुष्परिणाम केवल जनता को ही नहीं, बल्कि सरकारों को भी उठाने पड़ते हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि व्यापक प्रशासनिक सुधारों से क्यों बचा जा रहा है? यह प्रशासनिक सुधार न होने का ही परिणाम है कि प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार नियंत्रित होने का नाम नहीं ले रहा है। यदि कानून के शासन को जब-तब चुनौती दी जाती रहती है तो इसका एक बड़ा कारण न्यायिक तंत्र के साथ पुलिस एवं प्रशासनिक व्यवस्था में जरूरी सुधार न हो पाना है।
यदि देश को अमृतकाल में तेजी से प्रगति करनी है और 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना है तो न्यायिक, पुलिस एवं प्रशासनिक क्षेत्र में आवश्यक सुधारों का इंतजार खत्म होना ही चाहिए। इन तीनों क्षेत्रों के कामकाज को न केवल पारदर्शी बनाया जाना चाहिए, बल्कि उनकी जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए। सूचना अधिकार ने एक सीमा तक यह काम किया है, लेकिन लोकपाल और लोकायुक्त व्यवस्था के निर्माण से देश की जनता को कोई विशेष लाभ नहीं मिला। सुधारों की चिंता सरकार के साथ संसद भी करे।
नई शिक्षा नीति पर अमल के बावजूद अभी शिक्षा क्षेत्र में भी बहुत कुछ सुधार होने शेष हैं। कोचिंग उद्योग का व्यापक रूप शिक्षा क्षेत्र में हो रहे सुधारों को आईना दिखाने का ही काम कर रहा है। कायदे से अब तक पाठ्यक्रम में समयानुकूल परिर्वतन हो जाने चाहिए थे, लेकिन कहना कठिन है कि यह काम कब तक पूरा होगा? आज जब समान नागरिक संहिता और एक देश-एक चुनाव की चर्चा हो रही है, तब एक देश-एक पाठ्यक्रम की दिशा में क्यों नहीं बढ़ा जा सकता? यह राष्ट्रीय एकत्व को बल देगा और सभी को समानता के धरातल पर लाएगा। आखिर ऐसा पाठ्यक्रम क्यों नहीं तैयार हो सकता, जो विभिन्न राज्यों में थोड़े हेरफेर के साथ देश भर के छात्रों को पढ़ाया जाए ?