रेल सुरक्षा पर उठे कुछ नए सवाल

Pratahkal    07-Jun-2023
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Pratahkal - Alekh Update - A few new questions arose on rail security 
 
वी. एन. माथुर
  
इंटरलॉकिंग सिस्टम के भी नाकाम होने की 0.01 फीसदी गुंजाइश होती है। हमें सोचना होगा कि आखिर बालासोर जैसी दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय क्या हो सकते हैं? बालासोर रेल हादसे पर तमाम तरह की बातें की जा रही हैं। दुर्घटना के कारणों का पता तो जांच के बाद चलेगा, लेकिन शुरूआती तौर पर इसकी तीन वजहें मानी जा सकती हैं। पहली, सिगनलिंग या इंटरलॉकिंग सिस्टम में गड़बड़ी हो, जिससे कोरोमंडल एक्सप्रेस मेन लाइन की जगह लूप लाइन में चली गई। ड्राइवर की मानें, तो उसे ग्रीन सिगनल मिला था। हरी बत्ती का अर्थ ही है, मेन लाइन से गाड़ी आगे बढ़ाना। अगर लूप लाइन के लिए सिगनल मिला होता, तो बत्ती का रंग पीला होता। इसीलिए, सिगनल सिस्टम के नाकाम हो जाने के कयास लगाए जा रहे हैं।
 
दूसरा कारण यह हो सकता है कि ट्रेन जिस जगह पर एक पटरी से दूसरी पर चढ़ती है, यानी प्वॉइंट के आसपास एक्सेल या पटरी टूटने जैसी अन्य वजहों से कोरोमंडल एक्सप्रेस गलत लाइन पर चली गई हो, और ट्रैक पर खड़ी मालगाड़ी से टकरा गई। तीसरी वजह, मशीन से छेड़छाड़ हो सकती है। हो सकता है कि आखिरी वक्त में किसी ने प्वॉइंट के साथ गड़बड़ी की हो। जिस ट्रैक पर यह हादसा हुआ, वह 130 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार के लिए अधिकृत है । इस पर आमतौर पर गाड़ियां 110 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चलती हैं। कोरोमंडल भी कमोबेश इतनी ही तेज चल रही होगी, जिसके कारण दुर्घटना का भयावह असर हुआ है। इसमें हताहतों की संख्या इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि मालगाड़ी लौह अयस्कों से भरी थी और काफी भारी थी, जिस कारण टक्कर के बाद भी वह स्थिर रही और गति तेज रहने के कारण पूरा नुकसान कोरोमंडल एक्सप्रेस को हुआ ।
 
जैसा कि रेल मंत्री भी बता रहे हैं कि शुरुआती संदेह इंटरलॉकिंग सिस्टम की विफलता की ओर है। अगर ऐसा हुआ है, तो यह काफी गंभीर मसला है। इंटरलॉकिंग काफी सुरक्षित तकनीक मानी जाती है। इसमें सिगनल तभी हरा होता है, जब इससे जुड़ी प्रक्रिया पूरी होती है। इंटरलॉकिंग का मतलब ही है, सिगनल और प्वॉइंट के बीच एकरूपता । इसे तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। पहला, प्वॉइंट और रूट (जिस पटरी से ट्रेन गुजरनी है) तय किए जाएं। दूसरा, रूट खाली हो, यानी उस पर कोई दूसरी गाड़ी न हो (मगर बालासोर में पटरी पर मालगाड़ी खड़ी थी ) । और तीसरा, ट्रैक सर्किट व्यवस्था दुरूस्त हो। ट्रैक सर्किटिंग आजकल तमाम स्टेशनों पर होती है। इसमें सिगनल तभी हरा होता है, जब ट्रैक खाली हो, यानी उस पर कोई अन्य गाड़ी न खड़ी हो। जब तक ये तीनों प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक ट्रेन को हरी बत्ती नहीं मिल सकती है।
 
इंटरलॉकिंग पूरी तरह इलेक्ट्रॉनिक तरीके से नियंत्रित होती है। इसमें स्टेशन मास्टर के ऑफिस में एक पैनल लगा होता है, जिसमें चिप या कार्ड लगे होते हैं। यहीं बटन से स्टेशन मास्टर पहले ट्रेन का रूट तय करता है, फिर प्वॉइंट बदलता है, इसके बाद वेरिफाई की जाती है, और अंत में सिगनल हरा होता है। अगर स्टेशन मास्टर जान-बूझकर इसमें छेड़छाड़ करना चाहे, तब भी वह कुछ नहीं कर सकता। इसी कारण, यह माना जाता है कि इंटरलॉकिंग अगर काम कर रही होती, तो ऐसी दुर्घटना नहीं हो सकती थी इसलिए संभव है कि सर्किट में कुछ दिक्कत आ गई होगी। हालांकि, तकनीकी चूक कहीं भी हो सकती है। इंटरलॉकिंग सिस्टम के भी नाकाम होने की 0.01 फीसदी गुंजाइश होती है।
 
सच यही है कि पहले की तुलना में अब अपने देश में रेल हादसे काफी कम होने लगे हैं। रेल सुरक्षा में भारत का प्रदर्शन काफी सुधर गया है । इसकी बड़ी वजह यही है कि हम लगातार नई तकनीक अपना रहे हैं। पटरियों को अपग्रेड किया जा रहा है। सिगनलिंग और इंटरलॉकिंग को लगातार बेहतर बनाया जा रहा है। और सुरक्षा उपायों पर निवेश किया जा रहा है। इस कारण, रेल हादसे अनवरत कम हो रहे हैं। देश में 2010-2011 में 139 दुर्घटनाएं हुई थीं, जो 2011-12 में 131, 2012-13 में 120, 2013- 14 में 117... और इस तरह घटते घटते साल 2019-20 में 54, 2020-21 में 21 हो गईं। यह तस्वीर तब है, जब पटरियों पर ट्रेनों की संख्या अनवरत बढ़ रही है । अब रेल परिचालन काफी हद तक अत्याधुनिक तकनीक की मदद से होने लगा है।
 
हम यही मानते हैं कि यह शत-प्रतिशत सुरक्षित होती है। इसमें दूर बैठा कोई भी शख्स सिस्टम में सेंध नहीं लगा सकता । हैकर भी कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि यह इंटरनेट की सहायता से संचालित नहीं की जाती। यह स्थानीय स्तर पर नियंत्रित है और स्टेशन के नजदीकी क्षेत्रों में संचालित होती है। आरोप लगाया जाता है कि भारतीय रेल मानव संसाधन और बुनियादी ढांचे के मोर्चे पर कमजोर है। वास्तव में, हम इसमें लगातार सुधार कर रहे हैं। सुरक्षा उपायों की लगातार निगरानी की जाती है। हर स्टेशन पर प्वॉइंट ऐंड क्रॉसिंग रजिस्टर होता है, जिसमें सिगनल के सुपरवाइजर और सिविल इंजीनियरिंग के कर्मी नियमित अंतराल पर प्वॉइंट के निरीक्षण करने के बाद रिकॉर्ड दर्ज करते हैं। बालासोर में ऐसा किया गया अथवा नहीं, यह फिलहाल जांच का विषय है। मगर इस एक हादसे के कारण पूरे तंत्र को सवालों में लाना उचित नहीं होगा। हम लगातार सुधार कर रहे हैं। ट्रैक, वेगन, सिगनलिंग आदि से जुड़ी तमाम तकनीकों पर काम हो रहा है। कर्मचारियों को लगातार प्रशिक्षण दिया जाता है। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि ऐसी दुर्घटनाओं को हल्के में लिया जा रहा है। यह एक भयावह हादसा है और एक भी इंसानी जान की भरपाई करना नामुमकिन है।
 
आखिर ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय क्या हो सकते हैं? एक बड़ी राहत ऑटोमेटिक वार्निंग सिस्टम से मिल सकती है। इस तकनीक का इस्तेमाल मुंबई उपनगरीय रेल सेवा में हो रहा है। इसमें सिगनल से गाड़ी के ब्रेक नियंत्रित किए जाते हैं। मसलन, यदि यह मान लें कि कोरोमंडल एक्सप्रेस का ड्राइवर झूठ बोल रहा है और वह लाल बत्ती को पार करके गाड़ी को लूप लाइन में ले गया। तो, यदि यह स्वचालित चेतावनी तंत्र लगा होता, तब ट्रेन के लूप लाइन में जाते ही उसमें खुद-ब-खुद ब्रेक लग जाते और गाड़ी रूक जाती। हम चाहें, तो यह तंत्र हरेक जगह इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे हमारे देश में रेल यात्रा और अधिक सुरक्षित हो जाएगी।