विपक्षी एकता की सीमाएं

विपक्षी एकता की सबसे बड़ी बाधा यह है कि क्षेत्रीय दलों के पास कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है…

Pratahkal    05-Jun-2023
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Pratahkal-Limits of Opposition Unity
संजय गुप्त : संसद (Parliament) के नए भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार कर तमाम विपक्षी दलों ने राजनीतिक संकीर्णता और अपनी नकारात्मकता काही प्रदर्शन किया। देश की जनता इस बात को आसानी से भूलेगी नहीं कि स्वतंत्र भारत की संसद के नए भवन के उद्घाटन के ऐतिहासिक अवसर पर अनेक विपक्षी दलों ने अनुपस्थित रहना पसंद किया।
 
विपक्षी दल कुछ भी कहें, आम जनता इस संसद भवन के निर्माण का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Narendra Modi) को ही देगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि उसका उद्घाटन किसने किया । कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल कितना भी शोर मचाएं, उन्हें संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार का कहीं कोई लाभ नहीं मिलने वाला। इससे विपक्षी एकता के प्रयासों को भी बल नहीं मिलने वाला, क्योंकि संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार एक नकारात्मकता से भरी राजनीतिक हरकत थी। विपक्षी दलों को अपनी एकता के लिए कोई और ठोस एवं सकारात्मक आधार तलाशना चाहिए था। विपक्षी एकता की एक और कोशिश के तहत पटना में विपक्षी दलों का जमावड़ा होने जा रहा है। ऐसे जमावड़े रह-रहकर होते ही रहते हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले भी विपक्ष को एकजुट करने के तमाम प्रयास हुए, पर चुनाव आते-आते वे नाकाम हो गए और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 2014 से भी अधिक सीटें मिलीं। फिलहाल विपक्षी एकता के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जोरशोर से सक्रिय हैं। बिहार में उनकी पार्टी जनता दल- महागठबंधन में जूनियर पार्टनर है। माना जाता है कि आने वाले समय में जदयू का प्रभाव और कम होगा। जैसे-जैसे नीतीश कुमार उम्रदराज होंगे, जदयू अपना असर खोती चली जाएगी और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद का और उभार होगा। ऐसे में नीतीश कुमार के लिए देश की राजनीति में कोई असर दिखाने का आखिरी दांव हैं । वह यह उम्मीद पाले हुए हैं कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी रूझान रहेगा और विपक्षी दल मिलकर उसकी सीटों को कम करने में सफल रहेंगे । चूंकि फिलहाल विपक्षी दलों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है, इसलिए वह खुद के प्रधानमंत्री बनने की संभावना भी देख रहे हैं। हालांकि वह अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने से इन्कार कर रहे हैं। जदयू सरीखे क्षेत्रीय दल कुछ भी दावा करें, भाजपा के बाद अगर देश में कोई राष्ट्रीय पार्टी है तो वह कांग्रेस ही है और यदि केंद्र में गैर भाजपा सरकार बनती है तो उसका नेतृत्व कांग्रेस के पास होगा, क्योंकि एक तो उसके पास अनुभव है और दूसरे कम से कम उसके पास राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श भी है। अंतरराष्ट्रीय विषय हों या देश की रक्षा- सुरक्षा के मामले, इनमें उसकी अपनी एक समझ है। क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय दृष्टि का अभाव दिखाई देता है।
 
विपक्षी एकता में कांग्रेस की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रहने वाली है, लेकिन वह इस पर निर्भर करेगी कि उसे 2024 के लोकसभा चुनाव में कितनी सीटें मिलती हैं? अन्य विपक्षी दलों की अपनी सीमाएं हैं। अपने गढ़ों के अलावा उनका अन्य कहीं कोई असर नहीं। अपने राज्यों से बाहर वे भाजपा के वोट बैंक मे सेंध लगाने में सक्षम नहीं। जहां विपक्षी दल यह चाहते हैं कि उनके राज्यों में भाजपा विरोधी वोट बंटे नहीं, वहीं कांग्रेस यह चाहेगी कि उसे अधिक से अधिक सीटें मिलें। ऐसा तब होगा, जब वह अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन विपक्षी दल उसे दो-ढाई सौ सीटों पर ही चुनाव लड़ने की सलाह दे रहे हैं। कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं दिख रही है। इसका एक कारण तो यह है कि वह विपक्षी एकता के नाम पर अपनी राजनीतिक जमीन और अधिक खोने के लिए तैयार नहीं दिखती और दूसरे, कर्नाटक में जीत के बाद उसका मनोबल बढ़ा है। उसे लगता है कि वह अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन फिर से हासिल कर रही है।
 
पहले जो क्षेत्रीय दल कांग्रेस का साथ लिए बिना विपक्षी एकता की बातें कर रहे थे, वे अब उसे भी साथ लेना चाहते हैं। पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी भी विपक्षी एकता की पहल में शामिल दिख रही है। वह एक मात्र ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है, जिसकी दो राज्यों- दिल्ली और पंजाब में सरकार है। आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने पहले विपक्षी एकता से किनारा किया है, लेकिन इस समय वह सभी विपक्षी दलों से संपर्क-संवाद कर रहे हैं और केंद्र सरकार की ओर से दिल्ली सरकार के मामले में लाए गए अध्यादेश के खिलाफ उनका समर्थन मांग रहे हैं। इसी सिलसिले में वह नीतीश कुमार, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, एमके स्टालिन और हेमंत सोरेन से मुलाकात कर चुके हैं। मुलाकात के इस सिलसिले के बाद भी अभी यह स्पष्ट नहीं कि आम आदमी पार्टी विपक्षी एकता में किस हद तक शामिल होगी। कांग्रेस भी उसे लेकर दुविधा में है। विपक्षी एकता की सबसे बड़ी बाधा यह है कि विपक्षी दलों के पास कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है। वे राष्ट्रीय एजेंडे के मामले में कांग्रेस पर ही निर्भर हैं। वे राष्ट्रीय मुद्दों पर भी क्षेत्रवाद की राजनीति करते अधिक पाए जाते हैं। वे कई बार संघीय ढांचे की अनदेखी करने के साथ राष्ट्रीय हितों से अधिक क्षेत्रीय हितों को महत्व देने लगते हैं। उनके इसी रवैये के कारण नदी जल बंटवारे जैसे मसले सुलझ नहीं पाते। द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस जैसे दल तो विदेश नीति पर भी अपनी अलग लाइन पर चलने लगते हैं।
 
अधिकांश विपक्षी दलों का भाजपा विरोध सिर्फ अंध मोदी विरोध पर टिका हुआ है। इसी अंध विरोध का ही परिचायक था संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार । विपक्षी दल मोदी का चाहे जितना विरोध करें, वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि फिलहाल उनकी लोकप्रियता का कोई सानी नहीं। उनकी लोकप्रियता भाजपा की एक बड़ी ताकत है। इसी लोकप्रियता के बल पर भाजपा अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह भरती है।
 
इस लोकप्रियता का सामना अंध मोदी विरोध के बल पर नहीं किया जा सकता। यह समय बताएगा कि विपक्षी एकता किस हद तक परवान चढ़ती है, लेकिन फिलहाल कांग्रेस का मनोबल जिस तरह बढ़ा हुआ है, उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि वह क्षेत्रीय दलों की शर्तों को मानने के लिए तैयार होगी । इस स्थिति में विपक्षी एकता की कोशिश एक बार फिर नाकाम रहे तो हैरानी नहीं।