पार्टी न केवल अपने क्षत्रपों की हदें निश्चित कर रही है बल्कि विपक्षी एकता की भी शर्तें तय कर रही है ....

कांग्रेस हाईकमान का क्यों बदला मिजाज

Pratahkal    03-Jun-2023
Total Views |
 
 
Pratahkal - Lekh Update - The party is not only fixing the limits of its satraps but also setting the conditions of opposition unity.
राज कुमार सिंह
 
हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) और कर्नाटक (Karnataka) में मिली जीत के बाद कांग्रेस (Congress) समझ चुकी है कि स्थानीय मुद्दों पर मुखरता, पार्टी में एकजुटता और मुफ्त की रेवड़ियां जीत की कुंजी हैं ...
 
कर्नाटक की जीत कांग्रेस के लिए करिश्माई साबित हुई है। कुछ महीने पहले कांग्रेस ने भाजपा (BJP) से हिमाचल प्रदेश की सत्ता भी छीनी थी, लेकिन दक्षिण भारत में उसका एकमात्र दुर्ग ध्वस्त करने के बाद तो देश की सबसे पुरानी पार्टी का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर नजर आ रहा है। आलाकमान को आंखें दिखाने वाले क्षत्रपों को उनकी सीमाएं बताने का काम शुरू हो चुका है। अगले लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) के मद्देनजर जिस विपक्षी एकता की खातिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार (CM Nitish Kumar) को वार्ताकार बनाया था, अब उसे कांग्रेस अपनी शर्तों पर ही करने के मूड में है ।
 
जीत ने या बदला
 
कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस को विश्वास हो गया है कि हिमाचल प्रदेश में मिली जीत तुक्का नहीं थी। खुद को विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बताने वाली भाजपा से चंद महीनों के अंदर दो राज्यों की सत्ता छीनने के बाद कांग्रेस को चुनावी जीत का फॉर्मूला और आत्मविश्वास मिल गया है।
 
पार्टी को लग रहा है कि सीमित संसाधनों के बावजूद वह स्थानीय नेतृत्व और मुद्दों के सहारे लोक लुभावन वायदों से भाजपा को मात दे सकती है। उसका यह डर दूर हो गया है कि विरोधी वोटों के बंटवारे का लाभ उठा कर भाजपा हर बार बाजी मार सकती है।
 
कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी का जनता दल सेक्युलर भी सत्ता की दावेदारी के साथ चुनाव मैदान में था ही, लेकिन मतदाताओं ने उस स्वयंभू किंगमेकर को लगभग अप्रासंगिक बना दिया।
 
यह कर्नाटक में मिली शानदार जीत का ही परिणाम है कि अपने मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस ने विपक्ष के तीन मुख्यमंत्रियों- दिल्ली (Delhi) के अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal), तेलंगाना के के. चंद्रशेखर राव और पंजाब के भगवंत मान को बुलाया तक नहीं, जबकि तमाम विपक्षी दलों के नेता वहां आमंत्रित थे। बेशक, केसीआर और केजरीवाल के प्रति कांग्रेस की नापसंदगी किसी से छिपी नहीं है और यह एकतरफा भी नहीं है। अतीत में केसीआर और केजरीवाल जो विपक्षी एकता की खिचड़ी पकाते रहे हैं, उसमें कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं थी। अब जबकि हिमाचल और कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस के आत्मविश्वास को पंख लगा दिए हैं, वह उन्हें उनकी ही शैली में जवाब देने से नहीं चूकना चाहती। कांग्रेस के इस व्यवहार से विपक्षी एकता को जो नुकसान हो सकता है, उसे न्यूनतम रखने के लिए नीतीश कुमार अगले दिन दिल्ली आकर आप के संयोजक केजरीवाल से मिले। केंद्र की भाजपा सरकार से निरंतर टकराव के बीच केजरीवाल अफसरों की तैनाती का सुप्रीम कोर्ट से मिला अधिकार भी अध्यादेश द्वारा छीन लिए जाने के संकट से रूबरू हैं। अपने स्वभाव के विपरीत वह अब भी कांग्रेस से सहयोग के इच्छुक हैं। हालांकि इसकी असली वजह राज्यसभा में अध्यादेश का रास्ता रोकने के लिए कांग्रेस के समर्थन की जरूरत है। सत्ता के खेल की पुरानी खिलाड़ी कांग्रेस भी समझती है कि ऊंट मुश्किल से ही पहाड़ के नीचे आया है। इसलिए दिल्ली - पंजाब के नेताओं से चर्चा के बहाने उसने अभी तक पत्ते नहीं खोले हैं।
 
कांग्रेस आलाकमान का यह आत्मविश्वास क्षेत्रीय दलों ही नहीं, अपने क्षत्रपों से व्यवहार में भी झलक रहा है। पिछले साल की ही बात है, जब कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे अशोक गहलोत की जगह मुख्यमंत्री के चयन के लिए राजस्थान गए पार्टी पर्यवेक्षकों द्वारा बुलाई गई विधायक दल की बैठक में अधिकांश विधायक पहुंचे ही नहीं, बल्कि सचिन पायलट के विरूद्ध दबाव की राजनीति करते हुए अपने इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष को भिजवा दिए ।
 
137 साल पुरानी कांग्रेस के इतिहास में आलाकमान की अवहेलना की वह अभूतपूर्व घटना थी, लेकिन फिर भी पार्टी नेतृत्व गहलोत के बजाय मल्लिकार्जुन खरगे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सका। जिन पर्यवेक्षकों द्वारा बुलाई गई बैठक का गहलोत समर्थक विधायकों ने बहिष्कार किया था, उनमें खरगे भी शामिल थे। याद रहे कि वर्ष 2020 में कोरोना काल में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिरने के बाद वैसे ही हालात राजस्थान में भी बन रहे थे, लेकिन राहुल-प्रियंका के आश्वासन पर पायलट मान गए। उस आश्वासन पर अमल हो पाता तो शायद पायलट को अपनी ही सरकार के विरूद्ध पहले अनशन और फिर जन संघर्ष यात्रा नहीं करनी पड़ती। बहरहाल, वह कमजोरी अब अतीत की बात लगने लगी है। कांग्रेस हिमाचल और कर्नाटक की जीतों से सबक लेकर आगे बढ़ रही है।
  • उसने समझ लिया है कि स्थानीय मुद्दों पर मुखरता, पार्टी में एकजुटता और रेवड़ियां जीत की कुंजी हैं।
  • इसलिए गहलोत और पायलट को दिल्ली तलब कर एकता का निर्देश देने में देर नहीं लगाई।
  • राजस्थान में एकता का क्या फॉर्मूला निकाला गया है, यह तो अभी साफ नहीं हुआ है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि अकेले गहलोत की मनमानी नहीं चलेगी। मध्य प्रदेश के नेताओं को भी बुला कर समझा दिया गया है।
पार्टी से बड़ा कोई नहीं
 
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी एस सिंहदेव के बीच छत्तीस का आंकड़ा भी गोपनीय नहीं है। कांग्रेस में गुटबाजी कितनी गहरी है, इसका एक बड़ा उदाहरण हरियाणा भी है, जहां पिछले नौ साल से प्रदेश संगठन नहीं बन पाया है। जबकि इस अवधि में दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। अब आत्मविश्वास से लबरेज आलाकमान का संदेश स्पष्ट है : पार्टी से बड़ा कोई नहीं है, सबको पार्टी हित में साथ मिल कर चलना होगा।