फिर विस्थापित विश्वास का मणिपुर

मणिपुर को ‘न्यू रिफॉर्म्स सेफ स्टेट", यानी सुधार की नई राह पर बढ़ता एक सुरक्षित राज्य माना जा रहा था। पिछले कुछ वर्षों में बनी यह तस्वीर चंद दिनों में ध्वस्त हो गई।

Pratahkal    02-Jun-2023
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Pratahkal - Lekh - Why is Manipur displacing faith?
 
रामी निरंजन देसाई
 
मणिपुर (Manipur) क्या फिर से संघर्ष के पुराने दिनों में लौट चला है? वहां थम-थमकर हो रही जातीय हिंसा ने इस सवाल मौजूं बना दिया है। मणिपुर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से काफी अलग है। यहां के तमाम राज्यों में सशस्त्र संघर्ष हुए हैं, लेकिन वे सब अब अतीत बन चुके हैं। असम में ही सैंकड़ों विद्रोही सक्रिय थे, लेकिन अब कमोबेश सभी शांत हैं। नगालैंड (Nagaland) में तो नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड (National Socialist Council of Nagaland) - इसाक मुड़वा गुट के साथ केंद्र सरकार का समझौता भी नहीं हो सका है, लेकिन फिलहाल यहां पर शांति है।
 
मणिपुर की जनजातियां इसके चरित्र को जटिल बनाती हैं। हम बेशक उनको कानूनी रूप से अनुसूचित जनजाति न बुलाएं, लेकिन वे खुद को अनुसूचित जनजाति ही मानती हैं। फिर उनके अंदर भी कई उप-जनजातियां हैं, जिनमें खूब आपसी तनाव रहा है। 1997 में ही कुकी और उसकी उप-जनजाति पाइटी में जबर्दस्त हिंसा हुई थी। नगा भी यहां काफी हैं। फिर, म्यांमार से भी काफी संख्या में लोग भागकर यहां आए हैं, जिनको चिन कहा जाता है। इन सबके बीच संघर्ष तो है ही, जनजातियों के भीतर भी तनाव है। इससे मणिपुर अन्य राज्यों से अलग प्रकृति का हो जाता है।
 
जिस नजरिये से हम दूसरे राज्यों को देख सकते हैं, मणिपुर को नहीं देख सकते। यहां छोटे-मोटे तनाव होते रहे हैं, लेकिन पिछले पांच-छह साल में इसने जो उपलब्धि हासिल की है, वह उल्लेखनीय है । दशक-डेढ़ दशक पहले तक यहां शाम में चार बजे के बाद कर्फ्यू लग जाया करता था । ठहरने के लिए ढंग की जगह नहीं मिलती थी। परिवहन भी सुगम और सुरक्षित नहीं था । मगर अब यहां नए-नए होटल बन गए हैं। आना-जाना भी आसान हो गया है। नौजवान भी अब ज्यादा दिखने लगे हैं, क्योंकि वे पहले अच्छी शिक्षा हासिल करने के लिए बेंगलुरू, दिल्ली (Delhi) चले जाते थे। तमाम तरह के कारोबार यहां शुरू हो चुके हैं। तरक्की की इन इबारतों से जातीय तनाव की आग मानो चिनगारी में बदल गई थी। मगर अब ताजा हिंसा के बाद माना जा रहा है कि आपसी अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो जाएगी कि उसे पाट पाना काफी कठिन होगा। हाल-फिलहाल के दिनों में कुकी और मैतेई शायद ही एक-दूसरे पर भरोसा कर सकेंगे। यह एक खतरनाक संकेत है। बेशक यहां अमन-चैन दिखने लगा था, क्योंकि सुरक्षा व्यवस्था बेहतर हुई है, और विकास के कई काम हुए हैं, लेकिन तमाम जनजातियों में आपस में प्रतिस्पर्द्धा भी है। और, दुर्भाग्य से इनमें से कई हथियारबंद समूह भी हैं। इस बार उन्होंने अपने हथियारों का प्रदर्शन किया है, चाहे वे लूटकर उन्होंने जुटाए हों या कहीं से उनको मिले हों । अतीत में यहां आलम यह था कि अलगाववादी गुटों की सक्रियता सब पर भारी पड़ती थी। इस कारण यहां के कई इलाके असुरक्षित माने जाते थे। राजधानी इंफाल को छोड़कर बाकी तमाम क्षेत्रों में विकास की रोशनी मानो पहुंच ही नहीं रही थी। नतीजतन, यहां पर्यटक भी नाममात्र के दिखते थे। मगर इन दिनों हालात काफी बदल चुके थे। मणिपुर को 'न्यू रिफॉर्म्ड सेफ स्टेट' (New Reformed Safe State), यानी सुधार की नई राह पर आगे बढ़ता एक सुरक्षित राज्य माना जा रहा था। पिछले कुछ वर्षों में बनी यह तस्वीर मिनटों में ध्वस्त हो गई।
 
हमें यह समझना होगा कि गैर-कानूनी घुसपैठ यहां की सच्चाई है। म्यांमार (Myanmar) में जब से सरकार बदली है, उसने पूर्वोत्तर को प्रभावित किया है। बांग्लादेश के साथ भी ऐसा ही है, जिसकी बिगड़ती सेहत पूर्वोत्तर को नुकसान पहुंचाती है। असल में, म्यांमार और भारत के सीमावर्ती इलाकों में बसी इन जनजातियों में पारिवारिक रिश्ता है। आतंकवाद के खिलाफ म्यांमार सरकार की कार्रवाई के बाद काफी संख्या में लोग सीमा पार से आए। वे मणिपुर ही नहीं, मिजोरम में भी बसे। वहां तो करीब 30 हजार शरणार्थियों को चिह्नित भी किया गया है। कोई यह पूछ सकता है कि जब मिजोरम में भी म्यांमार से प्रवासी आए, तो वहां ऐसा तनाव क्यों नहीं दिखता? असल में, मिजोरम में इनके समर्थन में आवाज उठी है। हालांकि, वहां भी जनसांख्यिकी में बदलाव का मसला आ सकता है, जिसका गवाह मणिपुर बना है। यहां के चुराचांदपुर इलाके की आबादी करीब दो दशक पहले तक 60 हजार थी, लेकिन अब यह बढ़कर लगभग छह लाख हो गई है। फिर, इस तरह का प्रवासन किसी खास समुदाय के पक्ष में होता है। चूंकि सीमा पार से आने वाले ज्यादातर लोग स्वजातीय कुकी बहुल इलाकों में बसते गए, इसलिए मैतेई खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। ऐसे प्रवासन अलगाववादियों के लिए भी खाद-पानी का काम करते हैं। नगा विद्रोह के दौरान हमने देखा ही था कि किस तरह से विद्रोहियों को चीन का साथ मिला । त्रिपुरा में ही विद्रोही गुटों को बांग्लादेश में प्रशिक्षण हासिल हुआ था ।
 
आखिर इसका समाधान क्या है? जब मौजूदा तनाव शुरू हुआ था, तब कहा गया था कि उच्च न्यायालय (High Court) ने राज्य सरकार (Government) को मैतेई को अनुसूचित जनजाति बनाने संबंधी सिफारिश करने के लिए 'निर्देशित किया है, जबकि असलियत में यह प्रक्रिया शुरू भी नहीं हुई थी, क्योंकि इस मांग को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के हवाले किया जाना था। इतना ही नहीं, कुकी अब जंगली क्षेत्र में छठी अनुसूची लागू करने की मांग करने लगे हैं, जिससे यहां के स्वायत्त प्रशासनिक क्षेत्रों में स्थानीय परिषद को न्यायिक और दूसरी विधायी शक्तियां मिल जाएंगी। उल्लेखनीय है कि ऐसी हर परिषद को समान अधिकार नहीं दिए जाते। किसी-किसी को तो तमाम शक्तियों से वंचित भी रखा जाता है। हालांकि, ये तमाम अधिकार तभी मिलते हैं, जब समुदाय विशेष अपनी जिम्मेदारियों के प्रति गंभीर दिखता है ।
 
विरोध जताना देश के नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है, और कुकी यदि यहीं तक सीमित रहते, तो कहीं ज्यादा प्रभावी हो सकते थे। मगर अब बात हिंसा और हथियार तक पहुंच गई है। चूंकि यहां की जनजातियां सिर्फ अलगाववादी गुट नहीं हैं, इसलिए इस मसले के समाधान में सिविल सोसाइटी की भूमिका काफी महत्वपूर्ण बन जाती है । सत्ता- प्रतिष्ठान निस्संदेह जरूरी होने पर सख्ती दिखाए, लेकिन अमन का रास्ता मिल-बैठकर बातचीत करने से ही निकलेगा। यहां के समुदाय अपने हितों के लिए अपनों की जान-माल और सुरक्षा को दांव पर नहीं लगा सकते। उनका यह रूख किसी भी सभ्य समाज में उचित नहीं कहा जाएगा।