फिर दिल्ली, अध्यादेश और अदालत

निःसंदेश नए अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। संघवाद पर अध्यादेश के प्रभाव पर भी अदालत को गौर करना होगा, जो संविधान का बुनियादी हिस्सा है।

Pratahkal    25-May-2023
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Pratahkal - lekh -  Arvind Kejriwal
 
 
वृंदा भंडारी
बीते शुक्रवार की देर शाम राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (संशोधन) अध्यादेश, 2023 जारी किया, जिसने सेवाओं पर दिल्ली सरकार की शक्तियां छीन लीं। उसके बजाय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल (एलजी) को दिल्ली सरकार के नौकरशाहों के स्थानांतरण व पोस्टिंग से जुड़े मसलों पर अंतिम फैसला लेने का अधिकार दे दिया गया। नए अध्यादेश में नौकरशाहों के ट्रांसफर-पोस्टिंग से संबंधित मुद्दों पर फैसले लेने के लिए एक वैधानिक निकाय 'राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण' का गठन किया गया है, जिसमें तीन सदस्य होंगे- दिल्ली के मुख्यमंत्री, यहां के मुख्य सचिव और प्रधान गृह सचिव । इसका अर्थ यह है कि निर्वाचित मुख्यमंत्री के फैसले को दो वरिष्ठ नौकरशाह, जो निश्चय ही जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होंगे, वीटो या खारिज कर सकते हैं ।
यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा 11 मई को सर्वसम्मति से पारित फैसले के मद्देनजर लाया गया है। इस फैसले में शीर्ष अदालत ने उप-राज्यपाल के बजाय लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई स्थानीय सरकार को दिल्ली की सेवाओं पर नियंत्रण का अधिकार दिया था। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने माना था कि भूमि, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर को छोड़कर जनता द्वारा निर्वाचित दिल्ली सरकार के पास ही नौकरशाहों के स्थानांतरण और पोस्टिंग के मुद्दे पर अंतिम विधायी और समान विस्तार वाली कार्यकारी शक्ति होनी चाहिए। अदालत के फैसले के पीछे तर्क यह था कि चूंकि सिविल सेवक 'सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में निर्णायक भूमिका निभाते हैं, इसलिए निर्वाचित सरकार इतनी सक्षम होनी चाहिए कि वह अपनी सेवाओं में तैनात नौकरशाहों को नियंत्रित कर सके और उनकी जिम्मेदारी तय कर सके ।
जाहिर है, ताजा अध्यादेश से प्रक्रियात्मक, औचित्य और बुनियादी मुद्दों से जुड़े तमाम तरह के सवाल पैदा हो गए हैं। सामान्यत: अध्यादेशों को संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत तब जारी किया जाता है, जब संसद के दोनों सदनों का सत्र न चल रहा हो और जब राष्ट्रपति को लगता है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गई हैं, जिसके लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 123 बनाने के पीछे 'अति- आवश्यकता' की भावना रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2017 में कृष्ण कुमार सिंह बनाम बिहार सरकार के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया था, जिसका उल्लेख यहां उचित होगा । उस फैसले में कहा गया था कि अध्यादेश जारी करने की शक्ति राष्ट्रपति को इसलिए दी गई है, ताकि जब 'अप्रत्याशित हालात बन जाएं और उनसे निपटने के लिए विधायी उपायों की दरकार हो, तब कोई सांविधानिक शून्य की स्थिति न बनने पाए। सात न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि अध्यादेश जारी करना एक असाधारण शक्ति है, जिसका मकसद सांविधानिक जरूरतों को पूरा करना है।
 
आखिर वह 'असाधारण परिस्थिति थी क्या, जिसके लिए अभी कार्यपालिका को तत्काल हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई। हमारी नजर स्वाभाविक तौर पर आठ दिन पहले दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तरफ जाती है। ताजा अध्यादेश का मुख्य उद्देश्य अदालती फैसले के प्रभाव को कम करना जान पड़ता है। केंद्र सरकार ने दावा किया था कि सुप्रीम कोर्ट में आने से पहले सेवाओं को नियंत्रित करने और दिल्ली में नौकरशाहों के स्थानांतरण की शक्ति में उसे सर्वोच्चता हासिल थी। जाहिर है, सर्वसम्मत फैसले में हारने के तुरंत बाद उसने यह अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कमतर करने का प्रयास किया है। अध्यादेश में कहा गया है कि यह इसलिए जारी किया गया है, क्योंकि यह 'व्यापक राष्ट्रीय हित में है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई केंद्र सरकार के जरिये पूरे देश के लोगों की कुछ भूमिका राष्ट्रीय राजधानी के प्रशासन में हो', और 'अपनी राजधानी पर शासन करने की राष्ट्र की इस लोकतांत्रिका इच्छा' को प्रभावी बनाने के लिए यह कदम उठाया जाता है। इस तरह से केंद्र ने (उप-राज्यपाल के माध्यम से) सेवाओं पर दिल्ली सरकार का अधिकार अपने हाथों में ले लिया।
 
यह जगजाहिर तथ्य है कि नौकरशाहों के स्थानांतरण और पोस्टिंग का अधिकार सीधे तौर पर शासन की दक्षता व प्रभावशीलता से जुड़ा होता है, क्योंकि ये (गैर-निर्वाचित) नौकरशाह ही होते हैं, जो नीतियों को जमीन पर लागू करने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसीलिए, अध्यादेश की भाषा ऐसी जान पड़ती है कि केंद्र सब कुछ अपने हाथों में रखने के प्रयास कर रहा है, और लोकतांत्रिक जवाबदेही, प्रतिनिधि सरकार व सहकारी संघवाद के सिद्धांतों को कमतर करना चाहता है।
 
इस अध्यादेश को जारी करने का समय भी काफी खास है। सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई को अपना फैसला सुनाया था और 19 मई की देर शाम अध्यादेश जारी कर दिया गया, जबकि उसी दिन शीर्ष अदालत छुट्टियों के लिए बंद हो रही थी । इसके साथ ही कुछ अन्य मसले भी इसके साथ नत्थी हैं। मसलन, अदालती फैसले के आधार को हटाकर, जो कि विधायी अधिनियम द्वारा किया जा सकता है, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बेअसर करने की कसौटी पर क्या यह अध्यादेश खरा उतरता है, या सीधे-सीधे यह अदालत का विरोध है, जो अस्वीकार्य माना जाता है? अदालत को इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या यह अध्यादेश दिल्ली के शासकीय ढांचे से संबंधित संविधान में संशोधन किए बिना उसके फैसले को निष्प्रभावी बनाता है? सुप्रीम कोर्ट को संघवाद पर इस अध्यादेश के प्रभाव के बारे में भी गौर करना होगा, जो संविधान का एक बुनियादी हिस्सा है।
 
नि:संदेह, इस बात की पूरी संभावना है कि इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती दी जाएगी। जब भी ऐसा किया जयगा, यह लाजिमी है कि शीर्ष अदालत मामले की सुनवाई तत्काल आधार पर करे और शीघ्रता से इस मसले का निपटारा करे। देरी के कारण होने वाली न्यायिक सुस्ती कहीं इतनी लंबी न खिंच जाए कि यथास्थिति ही बनी रह जाए ।