लद रहे सतही राजनीति के दिन

चुनावी नारों और वादों से उकता चुकी जनता को अब जमीनी हकीकत में बदलाव की अपेक्षा है...

Pratahkal    24-May-2023
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Pratahkal - Lekh - Politics 
 
गिरीश्वर मिश्र
 
भारत (India) की जनता में सहते रहने की अदम्य शक्ति है और वह सबको अवसर देती है कि नेता अपने वादों और दायित्वों के प्रति सजग रहें, परंतु अधिकांश नेता जनप्रतिनिधित्व के वास्तविक काम को गंभीरता से नहीं लेते। चुनावी (Election) सफलता पाने के बाद वे यथाशीघ्र और यथासंभव सत्ता भोगने के उपाय आजमाने लगते हैं। ऐसे में जन सेवा का वह संकल्प और उत्साह एक ओर धरा रह जाता है जो धूमिल रूप में ही सही उनके मन में कभी तैर रहा होता था । दरअसल वे एक व्यापारी की तरह सोचने और काम करने लगते हैं।
 
इसका दर्दनाक उदाहरण जेल में बंद बंगाल के शिक्षा मंत्री और उनके सहयोगियों से मिलता है। जिस तरह शिक्षक नियुक्ति के मामले में करोड़ों रूपयों के आर्थिक घोटालों का पता चल रहा है और हजारों की संख्या में नियुक्ति पा चुके शिक्षकों को उच्च न्यायालय के आदेश द्वारा नौकरी से मुक्त किया जा रहा है, वह स्वतंत्र भारत के राजनीतिक (Politics) और शैक्षिक इतिहास में अनूठा है। तेजतर्रार लोकप्रिय और खुद को लोकसंग्रह के लिए समर्पित कहने वाली मुख्यमंत्री की नाक तले इतना कुछ विधिवत अनियमितता के साथ कैसे होता रहा, यह घोर आश्चर्य का विषय है।
 
यह इसका भी प्रमाण है कि राजनीति के खिलाड़ी अहंकार में डूब कर कुछ भी करने को स्वतंत्र मान बैठते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि समाज के स्तर पर इसके कितने दूरगामी परिणाम होंगे। वे जाने-अनजाने अच्छे-बुरे विचारों, व्यवहारों और मूल्यों के बीज बोते चलते हैं। वे आचरण और सफलता के न केवल मानक स्थापित करते हैं, बल्कि उदाहरण भी जनता के सामने पेश करते चलते हैं।
 
छोटे-बड़े नेता समाज में मॉडल के रूप में आते हैं। मीडिया की बेहद प्रभावी उपस्थिति से वे समाज के बड़े हिस्से को अपने असर में ले लेते हैं। यह बड़ा ही दुखद है कि सेवा-धर्म के साथ शुरू हुई राजनीति ने अपना जो कलेवर बदलना शुरू किया तो अब उसका कोई अंत ही दृष्टि में नहीं आता। बाहुबल, अपराध और धनबल के बढ़ते गठजोड़ के फलस्वरूप माफिया भी सांसद हो जाते हैं और सरकारें भी उन पर मेहरबान रहती हैं। आज राजनीति में योग्यता और सेवा का प्रश्न गौण हो रहा है। इसकी जगह लोकप्रियता और संपर्क शक्ति को वरीयता दी जाती है। इनसे भी अधिक पारिवारिक पृष्ठभूमि और आर्थिक हैसियत को महत्व मिलता है। ऐसा आदमी ठीक नेता कहा जाता है, जो जनता में अपना दबदबा बनाए रखे ।
 
स्वास्थ्य, कानून, प्रौद्योगिकी और शिक्षा जैसे तकनीकी क्षेत्रों में ज्ञान तथा कौशल की विशेषज्ञता का कोई विकल्प नहीं होता। राजनीतिक दबाव में इसकी भी उपेक्षा होने लगी है। कोशिश यही रहती है कि यथाशक्ति अपना, अपने भरोसे का, अपनी जाति-बिरादरी का, अपनी विचारधारा का या फिर किसी तरह से (आर्थिक या अन्य) लाभ पहुंचाने वाले व्यक्ति को मौका दिया जाए। इसी कड़ी में बिहार और बंगाल में सरकारी भर्तियों में अनुचित लाभ लेकर नौकरी देने की सरकारी नीति के उपयोग के जो मामले सामने आ रहे हैं, वे आंखें खोल देने वाले हैं। उनमें सत्ता का जबरदस्त दुरूपयोग किया गया।
 
राजनीतिक संस्कृति (Political culture) का अनिवार्य अंश बनता जा रहा स्वार्थ का विषाणु जीवन के अन्य क्षेत्रों को बुरी तरह संक्रमित करते हुए कार्यसंस्कृति को बाधित कर रहा है। लोगों को लग रहा है कि राजनीति की इस टेढ़ी चाल से शिक्षा की व्यवस्था और प्रशासन की प्रणाली ध्वस्त होती जा रही है। आम जनों का विशेष कर युवा वर्ग का अपनी योग्यता, क्षमता, परिश्रम और ईमानदारी पर से भरोसा उठता जा रहा है। ऐसा करते हुए नेतागण यह भूल जा रहे हैं कि पूर्वाग्रह के आधार पर भेदभाव की नीति से प्रजातंत्र की गाड़ी ज्यादा आगे नहीं जा सकती।
 
सत्ता में आने के पहले राजनेता चुनावी दंगल में एक व्यापक दृष्टि के साथ सामने आते हैं और अचानक जादू का पिटारा खुलने लगता है। एक के बाद एक वादे किए जाते हैं। ऐसा करते हुए अक्सर सरकारी खजाने की हालत को भी अनदेखा कर दिया जाता है। कर्नाटक के हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के विभिन्न वर्गों को संतुष्ट करना सफलता पाने की मुख्य युक्ति थी । यह करने के लिए सिलेंडर देवता का पूजन, पुरानी पेंशन योजना को लागू करना और अनेक स्थानीय मुद्दों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता से मतदाता को रिझाया गया। साथ ही जाति, मजहब और क्षेत्र की सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ लगाव भी मतदान पर हावी रहा।
 
उल्लेखनीय है कि पुराने मंत्रिमंडल के एक दर्जन मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा। यह तथ्य उनकी कार्य-निपुणताओं को प्रश्नांकित करता है। चुनाव परिणामों से जनता ने यह संदेश भी दिया है कि उसकी सहनशीलता की भी सीमा होती है और बहुत समय तक परीक्षा लेते रहना अन्याय है। विगत वर्षों में आम जनता के साथ नेताओं का संवाद घटता गया है। संचार में आने वाले व्यवधानों से यह राजनीतिक दलों के प्रभाव - क्षेत्र और नेताओं के आभामंडल को प्रभावित करता है और उसी अनुसार उनकी साख भी घटती-बढ़ती है। महंगाई, बेरोजगारी और सरकारी कामकाज की धीमी गति के अलावा उबाऊ नौकरशाही पूरी व्यवस्था की प्रामाणिकता पर प्रश्न खड़ा कर देती है। आम जन इनसे उद्धार पाने के लिए तड़पता रहता है।
 
कर्नाटक का चुनाव परिणाम कांग्रेस की एकजुटता, अल्पसंख्यकों का कांग्रेस को समर्थन और स्थानीय प्रश्नों के समाधान के वादे का महत्व दर्शाने के साथ-साथ भाजपा की रणनीतिक दुर्बलताओं और प्रदेश स्तर पर उसके नेताओं की आपसी उलझनों की नकारात्मक भूमिका को भी प्रकट करता है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के प्रभावी प्रचार के बावजूद जनता को प्रदेश स्तर का स्थानीय नेतृत्व बिखरा-बिखरा सा और दुर्बल लगा । वह आगे 'डिलिवरी' कर सकेगा, इसका पूरा भरोसा नहीं दिला सका। इसे लेकर जनता के मन में ऊहापोह या संशय बना रहा और उसका परिणाम सामने है। नारों और वादों से उकता चुकी जनता को अब जमीनी हकीकत में बदलाव की अपेक्षा है। आगामी चुनावों की भी यही कसौटी रहेगी । हमारे नेता यह बात जितनी जल्द समझ लें तो बेहतर कि सतही राजनीति का दांव अब नहीं चलने वाला ।