क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए चुनौती बन रही कांग्रेस

Pratahkal    24-May-2023
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Pratahkal - Lok Sabha Elections
 
नीरजा चौधरी
 
आगामी लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) के मद्देनजर विपक्षी एकजुटता की बहस के बीच कर्नाटक (Karnataka) के चुनावी नतीजे ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को चिंता में डाल दिया है कि क्या कांग्रेस (Congress) उनकी कीमत पर आगे बढ़ेगी। ऐसे में, जो दल उसके साथ जुड़ना चाह रहे थे, वे भी अब उससे किनारा करना चाहेंगे।
 
में जिस तरह से कांग्रेस ने कर्नाटक वापसी की है और जिस आसानी से नेतृत्व के संकट को संभाला है, उससे पता चलता है कि कांग्रेस अपनी पुरानी कुशलता को फिर से हासिल कर रही है। सिद्धरमैया मुख्यमंत्री पद के लिए स्वाभाविक पसंद थे, जो पूरे कर्नाटक में बहुत ज्यादा स्वीकार्य थे और ओबीसी, मुस्लिम एवं दलितों से बने पुराने 'अहिंदा' वोट बैंक का चेहरा थे। डीके शिवकुमार अपनी सीमाएं जानते थे और कड़ी सौदेबाजी के बाद दूसरे नंबर के पद के लिए मान गए उन्होंने सत्ता साझेदारी के सबसे बेहतर के लिए सौदेबाजी की, जो काम कर गई। अब सबकी निगाहें इस बात पर लगी हैं कि दोनों कैसे मिलकर काम करते हैं और राज्य को सुशासन प्रदान करते हैं, जिसके लिए लोगों ने उन्हें चुना है। क्या कर्नाटक के नतीजे का असर इस वर्ष बाद में होने वाले राज्य चुनावों पर पड़ेगा? और 2024 में नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए पूरे विपक्ष को एक साथ लाने में वह किस हद तक मददगार हो सकता है ?
 
कर्नाटक की जीत से कांग्रेस को मदद मिलेगी, क्योंकि इसने हताश पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार किया है, जो हिमाचल प्रदेश की जीत से पहले भूल गए थे कि चुनावी जीत का स्वाद कैसा हो सकता है। लेकिन कर्नाटक की राजस्थान (Rajasthan) में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (CM Ashok Gehlot) और सचिन पायलट (Sachin Pilot) के बीच विवाद की आग बुझा देगी, ऐसा असंभव है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस अच्छी स्थिति में है, लेकिन कर्नाटक जीत के कारण नहीं, बल्कि मामा जी (शिवराज) के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के कारण। इसके अलावा, मध्य प्रदेश भाजपा में मतभेद हैं, जैसा कि कर्नाटक में भी था ।
 
कहा जा रहा है कि अभी छत्तीसगढ़ में 50 : 50 फीसदी की स्थिति है। राजस्थान के विपरीत वहां मुख्यमंत्री भूपेश बघेल टीएस बाबा को प्रभावी ढंग से किनारे लगाने में कामयाब रहे, जिन्हें हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में छुट्टियां मनाते देखा गया! भाजपा यहां भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है और यह अभी मालूम नहीं है कि शराब घोटाले की ईडी- जांच किस हद तक बघेल और उनके बेटे को प्रभावित करेगी, और भाजपा उससे कैसा लाभ उठाएगी।
 
भूपेश बघेल ने गरीब समर्थक उपाय किए हैं, जैसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए किसानों के लिए गरीब परिवारों से 2 रूपये प्रति किलोग्राम गोबर खरीदना, बायोगैस के लिए इसका उपयोग करना, गरीब परिवारों की आय बढ़ाने में मदद करना, जो उनके पक्ष में जाता है । इसके अलावा उन्होंने क्षेत्रीय पहचान का 'छत्तीसगढ़िया' कार्ड भी खेला है तथा राज्य के सांस्कृतिक विरासत को नरम हिंदू प्रतीकों जैसे 'राम वन गमन पथ' से जोड़ा है। बघेल पिछले पांच वर्षों में ज्यादा मजबूत होकर उभरे हैं और अगर वहां कांग्रेस फिर से जीतती है, तो इसे पार्टी की जीत से ज्यादा उनकी जीत के तौर पर देखा जाएगा। कर्नाटक की तरह आज छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के पास भरोसा करने लायक स्थानीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व है। ऐसा भाजपा के साथ नहीं है, उसके पास राज्य में प्रभावी नेतृत्व का अभाव है और पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह कुछ कारणों से परिदृश्य से गायब हैं।
 
सैद्धांतिक रूप से कर्नाटक की जीत मल्लिकार्जुन खरगे (जिनका कर्नाटक की जीत के बाद कद बढ़ा है) को गहलोत और पायलट को सुलह के लिए एक साथ मेज पर बैठाने के लिए प्रेरित कर सकती है, ताकि आगामी चुनावों सीटों के बंटवारे पर समझौता हो सके । हो सकता है, पायलट राजी भी हो जाएं, पर गहलोत के मानने की संभावना नहीं है। गहलोत और पायलट के बीच रिश्ते अस्वाभाविक रूप से कटु हो चुके हैं। माना जाता है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री ने दोस्तों से कह रखा है कि जब तक वह हैं, पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनने देंगे! वह जयपुर में पायलट के लिए रास्ता बनाने के बजाय गांधी परिवार की इच्छाओं की धज्जियां उड़ाने और पार्टी अध्यक्ष पद की पेशकश छोड़ने के लिए भी तैयार थे। ऐसी स्थिति में, राजस्थान में युद्धविराम की संभावना नहीं दिखती है और राज्य में इसके अपने परिणाम होंगे। लेकिन भाजपा भी विभाजित और भ्रमित है ।
 
जहां तक विपक्षी एकता की बात है, तो कांग्रेस के साथ अपनी एकजुटता जताने के लिए बंगलूरू पहुंचे विपक्षी नेताओं में जानी-मानी हस्तियां थीं, लेकिन उनकी संख्या में कोई इजाफा नहीं हुआ। महत्वपूर्ण बात यह थी कि ममता बनर्जी शपथ ग्रहण समारोह में नहीं पहुंची थीं, हालांकि उन्होंने अपनी पार्टी से किसी को भेजा था। अखिलेश यादव भी नहीं पहुंचे थे। अरविंद केजरीवाल को आमंत्रित नहीं किया गया था। संकटग्रस्त केजरीवाल (सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी शक्तियों को केंद्र ने एक अध्यादेश के जरिये फिर से छीन लिया है) को कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के समर्थन की जरूरत है। लेकिन नीतीश कुमार को छोड़कर, जिन्होंने उनका समर्थन किया है, विपक्ष की तरफ से वह समर्थन केजरीवाल को मिला नहीं है। कांग्रेस की जीत ने विपक्षी दलों में उम्मीद जगाई है। इसने यह दिखा दिया कि भाजपा को मोदी और शाह के लगातार प्रचार के बावजूद हराना संभव है। भाजपा ने बजरंग दल को बजरंगबली से जोड़कर चुनाव अभियान को हिंदूवादी मोड़ देने की कोशिश की, लेकिन इसमें से कुछ भी कारगर नहीं हुआ।
 
हालांकि कर्नाटक की जीत ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को चिंता में भी डाल दिया है कि क्या कांग्रेस उनकी कीमत पर अपनी ताकत बढ़ाएगी । आखिरकार कर्नाटक में कांग्रेस को फायदा तो जद (एस) की कीमत पर ही मिला, क्योंकि मुस्लिम मतदाता आसानी से जद (एस) से कांग्रेस के पाले में चले गए। यही बात ममता, अखिलेश और केजरीवाल के लिए भी चिंता का विषय है। विपक्षी गठबंधन के पक्ष में अल्पसंख्यक मतों को मजबूत करने के लिए यह उन्हें कांग्रेस के साथ गठबंधन करने पर मजबूर कर सकता है। लेकिन इसे स्पष्ट करना होगा, क्योंकि हर पार्टी अब उत्साहपूर्वक अपने जनाधार की रखवाली कर रही है। इसलिए जब नीतीश कुमार सक्रिय रूप से एक राष्ट्रीय विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, तो इसे सिर्फ उसके सामान्य अर्थ में नहीं देखना चाहिए, क्योंकि यही क्षेत्रीय क्षत्रप अपने- अपने राज्य में कांग्रेस- या एक-दूसरे से जुड़ेंगे। कांग्रेस और विपक्षी दलों के लिए कर्नाटक की सीख यह है कि मजबूत स्थानीय नेतृत्व महत्वपूर्ण है तथा परिपक्व रवैये व देने-लेने की भावना से मतभेदों को सुलझाया जा सकता है।