शशि शेखर
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) अगर अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं, तो भाजपा (BJP) के समक्ष नई चुनौती जरूर खड़ी होगी, पर मोदी (Modi) ने यह मुकाम चुनौतियों से जूझते हुए ही हासिल किया है। वह हमेशा खुद की 'री-ब्रांडिंग' सफल रहे हैं। आने वाला आम चुनाव उनकी अगली अग्निपरीक्षा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) आगामी शुक्रवार को बतौर प्रधानमंत्री नौ साल पूरे करने जा रहे हैं। अगले साल आम चुनाव है और यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वह लगातार तीसरी बार अपनी पार्टी के लिए बहुमत जुटा सकेंगे? जवाहरलाल नेहरू के अलावा कोई अन्य इस कमाल को अंजाम तक नहीं पहुंचा सका है।
इस सवाल के जवाब के लिए मैं आपको ठीक एक दशक पीछे ले चलता हूं। उस वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के राजपाट का दसवां वर्ष चल रहा था । मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) को 'मिस्टर क्लीन' कहा जाता था, पर हर ओर उनके मंत्रियों के भ्रष्टाचार (Corruption) की अनुगूंज सुनाई पड़ती थी । ऐसे विरल दिनों में भाजपा ने गोवा- अधिवेशन (Goa - Convention) में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया । आडवाणी समर्थक इस फैसले से नाराज थे, पर समय उनका साथ छोड़ चुका था ।
पार्टी की अंदरूनी हलचल को दरकिनार कर मोदी देश के तूफानी दौरे पर निकल पड़े। वह जहां जाते, हजारों लोग उमड़ पड़ते। हाल यह था कि टेलीविजन (Television) पर उनके भाषण सुनने के लिए समाचार माध्यमों के दफ्तरों तक में पत्रकारों की टोली टीवी के ईद-गिर्द इकट्ठी हो जाती थी। उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिली थीं। यह पहला मौका था, जब भाजपा अपने दम पर बहुमत जुटा सकी।
यहीं से भगवा दल का महत्वाकांक्षी सफर शुरू होता है। एनडीए के पुराने साथी उपेक्षा के आरोप लगाने लगे, पर पार्टी ने ताकतवर दोस्तों के मुकाबले सीमित शक्ति वाले सहयोगियों को तरजीह देनी शुरू कर दी। इससे उपजी असहजता के बावजूद 2019 के चुनाव में
भाजपा पहले से 21 सीटें ज्यादा पाने में कामयाब रही। साथ ही साथ अकाली दल, शिव सेना और जद (यू) जैसे पुराने दोस्तों से अलगाव की इबारत लिखी जाने लगी। राजनीति में चढ़ते हुए सूरज को हर आदमी सलाम करता है। दूसरा चुनाव जीतते ही पार्टी में असंतोष की जो खदबदाहटें सुनाई पड़ती थीं, वे अतीत की बात बन गई। मोदी आज सरकार और पार्टी, दोनों में निर्विवाद नेता हैं।
क्या सन् 2023 के नरेंद्र मोदी की तुलना 2013 के मनमोहन सिंह से की जा सकती है? यकीनन, नहीं। हुकूमत के दसवें और निर्णायक वर्ष की ओर बढ़ते मोदी थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के बावजूद लोकप्रियता के शीर्ष पर कायम हैं। अभी तक के तमाम सर्वे इस तथ्य की मुनादी करते हैं। आज तक कोई प्रधानमंत्री इस 'टेंपो' को कायम नहीं रख सका है । हो सकता है, आपको यहां जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) और इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) याद आ जाएं। भूलें नहीं, नेहरू के पास पहले प्रधानमंत्री का आकर्षक रूतबा था, तो इंदिरा गांधी को 1971 के युद्ध का सहारा मिल गया था। तब से वक्त, तकनीक और हालात कितने बदल गए? इसके बावजूद मोदी अपना आकर्षण बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं ।
अब पुराने प्रश्न पर लौटते हैं। क्या इसका लाभ 2024 के आम चुनावों में भाजपा को मिलने जा रहा है?
पिछले हफ्ते संपन्न हुए कर्नाटक चुनाव का उदाहरण देना चाहूंगा। भाजपा ने वहां पूरी जान झोंकी, पर परिणाम पक्ष में नहीं रहे। क्यों? सरकार पर 'चालीस परसेंट की सरकार' की तोहमत भारी पड़ गई थी। कांग्रेस ने सुनियोजित तरीके से इस आरोप को परवान चढ़ाया और उसकी तपिश को मद्धम नहीं पड़ने दिया । नरेंद्र मोदी को भी इसी तरह घेरने की कोशिश हुई थी। पिछले चुनाव में 'चौकीदार चोर है' का नारा उछाला गया, पर वह निष्प्रभावी साबित हुआ । इस बार अडानी के जरिये माहौल गरमाने की कोशिश हो रही है। पहले राफेल और अब अडानी संबंधी आरोपों पर सर्वोच्च अदालत ने 'क्लीन चिट' दे दी, लेकिन ऐसे आरोप जड़ न पकड़ें, इसके लिए प्रधानमंत्री और उनकी टीम पूरी सतर्कता बरतते हैं। मोदी की विशिष्ट संवाद शैली इस अभियान को और पुख्ता कर देती है। वह मन की बात और अन्य तमाम तरीकों से आम आदमी से सीधा संवाद बनाने में कामयाब रहे हैं। मोदी की सफलता का एक सधा हुआ सूत्र यह भी है कि सरकार के काम-काज का संदेश सभी तक पहुंचना चाहिए। मनमोहन सिंह सरकार मनरेगा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के चलते करीब 27 करोड़ भारतीयों को गरीबी की रेखा से ऊपर लाने में कामयाब रही थी । 'डायरेक्ट कैश ट्रांसफर' की योजना भी उन्हीं के समय में शुरू हुई, लेकिन समन्वय और संवाद के अभाव में वह तीसरे चुनाव में इनका लाभ नहीं उठा सके। इसके उलट आज कोविड, बेरोजगारी, महंगाई और अन्य कारणों से बहुत से लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, पर मोदी की छवि उससे बहुत प्रभावित होती नहीं दिखती। किसानों को सीधा लाभ पहुंचाने के साथ 82 करोड़ लोगों को मुफ्त अन्न देने की योजना के साथ तमाम अन्य कल्याणकारी कार्य उन्हें अलग साबित करते हैं। नरेंद्र मोदी ने इनके जरिये चुनाव - दर - चुनाव जाति के बंधनों को तोड़ने की सफल कोशिश की है।
प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी यहीं नहीं रूकते। हिंदू धार्मिक स्थलों के विकास के साथ तमाम पर्वों और त्यौहारों के जरिये अपरोक्ष संदेश भी बहुसंख्यकों को निरंतर दिया जाता रहा है । सशक्त संवाद, कल्याणकारी योजनाएं और धर्म के सधे हुए इस्तेमाल ने नरेंद्र मोदी के स्वरूप में सियासत का नया मिथ गढ़ दिया है।
यहां सवाल उठता है कि हिमाचल और कर्नाटक की तरह अगर इस साल के अंत में होने वाले पांच अन्य राज्यों में भाजपा को मन मुताबिक सीटें नहीं मिलतीं, तो उसका कितना असर लोकसभा चुनावों पर पड़ेगा? जवाब मुश्किल नहीं है। पिछली बार तमाम राज्यों में भाजपा को विधानसभा चुनावों ने निराश किया था, पर लोकसभा चुनावों में मोदी को उन्हीं सूबों में जबरदस्त बढ़त हासिल । दिनोंदिन परिपक्व होते हमारे लोकतंत्र में लोग जान गए हैं कि प्रदेश और देश के चुनाव अलग होते हैं, इसीलिए उन्हें पृथक किरदारों के लिए दो अलग दल या नेता चुनने में परेशानी नहीं आती।
इसके बावजूद तय है कि आने वाले दिनों में विपक्षी एकता की कसरत जोर पकड़ेगी। नीतीश कुमार पटना में ऐसे महाविपक्षी जुटान के संकेत दे चुके हैं। शरद पवार ने एका के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है और ममता बनर्जी भी मिले-जुले सुर आलाप रही हैं। यही वजह है कि लोगों को विश्वनाथ प्रताप सिंह का फॉर्मूला याद आने लगा है। सिंह जानते थे कि समूचे विपक्ष को एक करना और फिर जोड़े रखना असंभव है, इसीलिए उन्होंने सत्तारूढ़ दल के विरूद्ध सिर्फ एक उम्मीदवार खड़ा करने की सलाह दी थी। नीतीश कुमार यही कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने अपना यह अभियान सोनिया और राहुल गांधी से मुलाकात के बाद आरंभ किया था। क्या उन्हें कांग्रेस का पूरा समर्थन हासिल है ? अगर कांग्रेस समूचे तौर पर साथ है, तब भी बिहार के परिपक्व मुख्यमंत्री के समक्ष अवरोध कायम हैं। उन्हें अंतरविरोधों की लंबी फेहरिस्त से निपटना होगा।
नीतीश कुमार अगर अपने इस मकसद में कामयाब हो जाते हैं, तो भाजपा के समक्ष नई चुनौती जरूर खड़ी होगी, पर मोदी ने यह मुकाम चुनौतियों से जूझते हुए ही हासिल किया है। वह हमेशा खुद की 'री-ब्रांडिंग' में सफल रहे हैं। आने वाला आम चुनाव उनकी अगली अग्निपरीक्षा है ।