हिंदी पट्टी पर बार-बार सियासी प्रहार

उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से को "तार्किकता" से परे पिछड़ा एवं मात्र कर्मकांडीय प्रतीक के रूप में रूपायित करना कहां तक उचित है? ऐसी राजनीति पर हमें विचार करना होगा।

Pratahkal    10-Dec-2023
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yogi 
 
बद्री नारायण : राजनीतिक विमर्श एवं सोशल मीडिया में फिर से उत्तर बनाम दक्षिण द्वंद्व की चर्चा चल पड़ी है। ताजा चुनावी नतीजों में चंद राजनेताओं ने द्वंद्व या विभाजन के तत्व खोज लिए हैं। पहले इस तरह की बातें कहीं-कहीं या कभी-कभी ही होती थीं, पर अब ऐसी बातें संसद एवं मीडिया में अक्सर होने लगी हैं।
 
ऐसी बातें दो कारणों से की जाती हैं, एक तो विभेद एवं विभाजन ढूंढ़ने वाली दृष्टि के कारण, दूसरा, राजनीतिक लाभ की मंशा से दोनों ही प्रवृत्तियां राष्ट्र निर्माण एवं राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक हैं। इसके बाद यह प्रवृत्ति जब आगे बढ़ती है, तो एक-दूसरे की अस्मिता को नीचा दिखाने एवं लांछित करने की कोशिश की जाती है। राजनीतिक गोलबंदी के लिए ऐसी कोटि या श्रेणी आधारित ऐसी भावनाओं को पूरी संकीर्णता के साथ जगाया जाता है। जाति, धर्म एवं क्षेत्रीयता ऐसी ही श्रेणियां हैं। क्षेत्रीयता की श्रेणी भाषा एवं सांस्कृतिक विभेद पर फलती-फूलती है।
 
ऐसा करने वाले इस प्रक्रिया में यह नहीं सोचते कि ऐसा करके हम दूसरे की अस्मिताओं एवं कोटियों को ही नहीं आघात पहुंचाते हैं, वरन इनसे जुड़े लोक, समाज एवं जन को भी हम दुखी करते जाते हैं। इन्हीं प्रवृत्तियों की एक झलक अभी हाल ही में तमिलनाडु (tamilnadu) में सत्तारूढ़ द्रमुक के सांसद सेंथिल कुमार के बयानों में दिखाई पड़ा, जब वह उत्तर-भारत एवं हिंदी पट्टी के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान (rajasthan) एवं छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में मिली विजय को ‘गोमूत्र-राज्यों एवं उनकी राजनीतिक मानसिकता से जोड़कर व्याख्यायित करते हैं। 'गोमूत्र राज्य' (cow urine state) से यहां उनका आशय हिंदीभाषी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे उन नौ राज्यों से है, जिन्हें कभी सियासी कोण से देखते हुए 'काऊ बेल्ट' (cow belt) भी कहा गया था।
 
उत्तर भारतीय राज्यों को एक खास बहिष्करण आधारित अभिजात्य मानसिकता के प्रभाव में 'काऊबेल्ट' तो कहा जाता रहा है। हालांकि, 'गाय' (COW) एक प्रकार से कृषिकालीन संस्कृति का प्रतीक रही है, जिसका प्रसार गंगा-यमुना के किनारे बसी आबादी में हुआ है। वैसे गोमूत्र जैसी संज्ञा जिस ढंग से एवं जिस तरह से प्रस्तुत की गई है, उसकी उत्तर भारतीय समाज में गहरी प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। शहरों एवं कस्बों की चाय की दुकानों पर अखबार पढ़ते लोगों की जनचर्चा एवं सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाओं में इसकी झलक देखी जा सकती है।
 
यहां पर 'गोमूत्र राज्य' एक व्यंग्यात्मक अर्थ में हिंदी पट्टी के लिए इस्तेमाल किया गया है। 'उत्तर भारत' का बहुलांश जो मूलतः हिंदीभाषी प्रदेशों से बना है, जिसे कभी आर्यावर्त एवं आर्यावर्त का विस्तार क्षेत्र भी कहा जाता रहा है। जहां प्राचीन काल में वेद, पुराण, उपनिषद्, बुद्ध, जैन, श्रमन, जैसे विचार एवं चिंतन-मनन की प्रक्रिया चलती रही है। जहां भारत निर्माण की प्रक्रिया मध साम्राज्य के नेतृत्व में प्रारम्भ हुई। जहां गणतंत्रों की सुदीर्घ परंपरा विकसित हुई। जो क्षेत्र अंग्रेजों के समय में गोरों द्वारा सर्वाधिक दमित किया गया। जहां सन 1857 के विद्रोह के रूप में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम कहा एवं माना जाने वाला विद्रोह प्रारंभ हुआ। उस क्षेत्र को 'तार्किकता' से परे पिछड़ा एवं मात्र कर्मकांडीय प्रतीक के रूप में रूपायित करना कहां तक उचित है? इस पर हमें विचार करना होगा ।
 
हिंदी के महान चिंतक राम विलास शर्मा जिस 'हिंदी पुनर्जागरण' की विस्तार से चर्चा अपने शोधों व पुस्तकों में करते हैं, उसकी भी भूमि यही क्षेत्र रहा है। हिंदी जो राष्ट्रीय आंदोलन एवं स्वतंत्रता के लिए लड़ी गई लड़ाई की भाषा रही एवं उपनिवेशवाद विरोधी सांस्कृतिक क्षेत्र को स्थापित करती रही है, उसके लिए व्यंग्य-बाण नहीं चलने चाहिए । बलराज साहनी इतिहासकार तो नहीं थे, किंतु अत्यंत विचारवान फिल्म अभिनेता थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 1970 के दशक में दिए गए अपने व्याख्यान में अत्यंत विस्तार से बताया है कि कैसे अपनी प्रतिरोधी चेतना के कारण उत्तर- भारत विशेषकर इस 'हिंदी पट्टी' को अंग्रेजों द्वारा भयानक दमन कर पिछड़ा क्षेत्र बनाया गया। अगर इनके 'पिछड़ेपन' का ही राजनीतिक गीत किसी को गाना है, तो उसे समझना होगा कि जनतंत्र की राजनीति का नैतिक पक्ष यह है कि उत्तर भारत के साथ औपनिवेशिक काल में हुए 'विकासात्मक अन्याय' को दूर करने के लिए उसकी भरपाई की जाए। सामाजिक न्याय की ही तरह डेढ़ सौ साल पहले उपनिवेशवाद द्वारा दुष्प्रेरित अन्याय को समाप्त करने के लिए नए 'न्याय' की अवधारणा पर राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए।
देश में कहीं भी राजनीति को चुनावी वोटों के रुझान के आधार पर ऐसा चलताऊ नहीं बनाना चाहिए। हमने देखा है कि कई बार उत्तर भारत में जीतने वाली राजनीतिक पार्टियां दक्षिण एवं पूर्वी भारत में भी जीतती रही हैं। भारतीय जनतंत्र के इतिहास को अगर देखें, तो कांग्रेस कभी उत्तर एवं दक्षिण, दोनों ही भागों में बहुमत प्राप्त करती थी । भारतीय जनता पार्टी उत्तर भारत, मध्य भारत, उत्तर- पूर्व और दक्षिणी राज्य कर्नाटक में भी जीतती रही है। ऐसे में, किसी राजनीतिक चेतना को मात्र एक क्षेत्र विशेष की चेतना बता विभाजनकारी आख्यान विकसित करना कहीं से उचित नहीं है।
 
उत्तर भारत में आज भी सामाजिक न्याय, वाम परिवर्तन, हिंदुत्व के विचार कई तरह की राजनीति सक्रिय है। ऐसे में, किसी दल की जीत को या किसी क्षेत्र में किसी राजनीति के प्रसार को अपमानजनक रूप से स्थानीयकृत करना उस क्षेत्र से जुड़े जनमानस की गलत व्याख्या है। जो जनमानस बहुलतावादी रहा है, जो विचार व विमर्श का केंद्र रहा है, जिसने भयानक दमन झेला और गुलामी विरोधी संघर्ष को संचालित किया, उसे किसी राजनीतिक लाभ के लिए 'एकायामी खांचे' में फिट कर देना कहां तक उचित है, हमें सोचना होगा। हालांकि, यह देखना सुखद है कि इस तरह की विभेदकारी अवधारणा की भी आलोचना खूब की जा रही है। ऐसे लोगों को भी संभलना चाहिए, जो अक्सर बिहार, उत्तर प्रदेश के देश के प्रति योगदान का आकलन किए बिना ही कुछ गलत बोल देते हैं।
 
जाहिर है, भारतीय समाज एवं राजनीति अस्मिता आधारित राजनीतिक सरलीकरण की प्रवृत्ति का बढ़ते जाना चिंताजनक है। यह भारतीय जनतंत्र के विकास के लिए हानिकारक है। ऐसी प्रवृत्तियों का एक ही काट है - लोक एवं जन की आलोचनात्मक शक्ति का ऐसी प्रवृत्तियों के खिलाफ उभार । आलोचनात्मक उभार एवं नवजागरण से ऐसी प्रवृत्तियां हारेंगी और जनतंत्र भी ज्यादा गहरा एवं प्राणवान हो सकेगा।