चुनावी बांड और पारदर्शिता का प्रश्न

चुनावी बांड्स के माध्यम से होने वाली राजनीतिक फंडिंग लंबे समय से विवादों में है। कुछ राज्यों में होने वाले चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर यह चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट में चल रहे इससे संबंधित महत्वपूर्ण मामले में पिछले दिनों सुनवाई पूरी हो गई। सुनवाई के दौरान चुनावी फंडिंग समेत दान देने वाली कंपनियों और दान पाने वाले राजनीतिक दलों समेत विविध पहलूओं पर चर्चा हुई। लिहाजा इस मामले में पारदर्शिता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

Pratahkal    07-Nov-2023
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Electoral Bond Controversy 
 
लालजी जायसवाल.. उच्चतम न्यायालय (Supreme court) ने चुनाव आयोग (election Commission) को राजनीतिक दलों (Political parties) को 30 सितंबर 2023 तक इलेक्टोरल बांड से मिले चुनावी चंदे का विवरण दो सप्ताह में जमा करने को कहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट को इस मसले पर विचार करने का अधिकार है या नहीं। बता दें कि अदालत ने स्पष्ट किया है कि चुनावी फंडिंग का जो तरीका कार्यपालिका ने बनाया है, वह संविधान की कसौटियों पर खरा उतरता है या नहीं, यह देखना उसकी जिम्मेदारी है और इसी सवाल पर वह विचार करेगी। उच्चतम न्यायालय में इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद मुख्य न्यायाधीश की अगुआई वाली बेंच ने अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया है, लेकिन सुनवाई के दौरान जिस तरह से इस मसले के अलग-अलग पहलू उभरे हैं वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। एक अहम पहलू यह भी सामने आ रहा है कि अपने दान को गोपनीय रखने का कंपनियों का अधिकार ज्यादा महत्वपूर्ण है या राजनीतिक दलों को मिल रही फंडिंग का सोर्स जानने का आम नागरिकों और मतदाताओं का अधिकार। इस मसले से जुड़े इन तमाम पहलूओं पर सुप्रीम कोर्ट आखिरकार क्या रूख अपनाता है, यह तो उसके निर्णय से ही पता चलेगा। फिलहाल यह उम्मीद जरूर की जा सकती है कि कोर्ट का आदेश आने वाले दिनों में चुनावी फंडिंग का स्वरूप तय करने के साथ ही चुनाव सुधारों को भी एक नई दिशा देने का काम करेगा ।
 
वस्तुत: पहले भी इस मामले को लेकर सुधार होता रहा है, लेकिन सभी सुधार अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे। वर्ष 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने इस विवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए उद्योग घरानों पर लगे प्रतिबंध को हटाया और कानून बनाया कि कोई भी कंपनी अपने शुद्ध वार्षिक लाभ का 5 प्रतिशत चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकती है जो कि सीधे जनता की नजर में रहेगा। इसके बाद के वर्षों में कानून में संशोधन करके इसे लाभ का साढ़े 7 प्रतिशत कर दिया गया, परंतु इस दौरान चुनावों को लेकर एक और घटना 1974 में चलो बुलावा आया है।
 
ई और इंदिरा गांधी सरकार ने चुनाव कानून में संशोधन करके यह प्रविधान किया कि चुनाव में खड़े किसी भी प्रत्याशी पर उसका कोई मित्र या समर्थक संगठन कितना भी धन खर्च कर सकता है। यह खर्च प्रत्याशी के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होगा। इस संशोधन के बाद भारत में चुनाव खर्चीले और महंगे होते गए। क्या है चुनावी बांड : चुनावी बांड एक तरह का प्रतिज्ञात्मक नोट महत्व बैंक नोट के समतुल्य माना जाता है। धारक के मांगने पर इसका भुगतान बिना किसी ब्याज के किया जाता है। इसे भारत का कोई भी नागरिक या देश की कोई भी संस्था खरीद सकती है। चुनावी बांड प्रणाली को वर्ष 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किया गया था । इसे वर्ष 2018 में लागू किया गया। मालूम हो कि केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत हैं, जिन्होंने पिछले आम चुनाव में लोकसभा या विधानसभा के लिए डाले गए वोटों में से कम-से-कम एक प्रतिशत वोट हासिल किए हों, वे ही चुनावी बांड हासिल करने के पात्र होते हैं। वास्तव में चुनावी बांड कंपनियों, धनी व्यक्तिगत दानकर्ताओं और विदेशी संस्थाओं को परोक्ष रूप से राजनीतिक शक्ति प्रदान करते हैं। अन्य देशों की चुनावी फंडिंग व्यवस्था : भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक फंडिंग को विनियमित करना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसमें हितों का अंतर्निहित टकराव है जिसका ठोस उपाय खोजने की आवश्यकता है। राजनीतिक दल राज्य से भिन्न होते हैं, लेकिन विधायिका में वे राज्य की ओर से कानून बनाते हैं, जिसमें उनकी फंडिंग का नियामक ढांचा भी शामिल होता है। राजनीतिक फंडिंग को दो पहलूओं से विनियमित किया जाता है, जिसमें पहला व्यक्तिगत दान पर सीमा तय करना और दूसरा फंडिंग के स्रोत के बारे में जानकारी। फिलहाल दोनों में से फंडिंग स्रोत पर पारदर्शिता अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि दाता की पहचान नहीं की गई है तो सीमा को आसानी से दरकिनार किया जा सकता है । कुछ प्रमुख लोकतंत्रों ने एक नियामक व्यवस्था तैयार करने के लिए संघर्ष किया है जो इन चुनौतियों का व्यापक रूप से समाधान करती है ।
 
वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने दान पर एक शताब्दी पुरानी सीमा को होता है, जिसका प्रभावी ढंग से हटा दिया और दाताओं की पहचान छिपाने की अनुमति दी, बशर्ते एक शर्त पूरी होनी चाहिए जिसमें राजनीतिक दल और दाताओं के बीच कोई औपचारिक समन्वय नहीं होगा। बहरहाल, अमेरिका इस बात का सबसे अच्छा सबूत है कि चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लोकतंत्रों के सामने सबसे कठिन चुनौतियों में से एक है। वहीं भारत में भी वर्ष 2017 में एक विधायी संशोधन के माध्यम से कारपोरेट दान पर लगी सीमा हटा दी गई थी और अगले वर्ष चुनावी बांड अधिसूचित किए गए थे । यह एक बैंक द्वारा जारी किया गया एक वाहक बांड है, लेकिन विधायी परिवर्तनों ने सुनिश्चित किया कि धन का स्रोत मतदाताओं और चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण हितधारकों से छुपाया जाए।
 
भारत को भी प्रजातंत्र की रक्षा और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले धन के प्रवाह को स्वच्छ बनाना चाहिए । अन्यथा इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। चुनावों में बाहरी दखलंदाजी से देश की सुरक्षा भी दांव पर लग सकती है। अमेरिकी चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जीत के पीछे रूस के धन का उपयोग माना जा रहा था। भारत में भी ऐसे मामले आने पर कोई समसामयिक कानूनी बाधाएं नहीं हैं। अतः सर्वोच्च न्यायालय को जल्द ही इस मामले के निष्कर्ष तक पहुंचना चाहिए जिससे प्रजातंत्र के लिए खतरा उत्पन्न न हो सके । अंत में स्पष्ट कर दें कि इलेक्टोरल बांड से राजनीतिक चंदा देने की व्यवस्था में सुधार लाने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि बांड से चंदे की व्यवस्था तो जारी रहे, लेकिन ऐसा तभी हो जब सभी पक्ष इस मामले मे सौ प्रतिशत पारदर्शिता अपनाएं। इससे राजनीतिक चंदे के सबसे स्याह पक्ष का खात्मा हो जाएगा। लेकिन ऐसे कई और पक्ष हैं जिनमें सुधार किए जाने की जरूरत होगी। लिहाजा स्पष्ट है कि भारत में राजनीतिक फंडिंग व्यवस्था में सुधार की राह कठिन दिखाई देती है।