मुफ्तखोरी की खतरनाक राजनीति

मतदाताओं को यह आभास होना चाहिए कि राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढ़ाने और रेवड़ी संस्कृति को बल देने में उनकी भी एक बड़ी भूमिका है

Pratahkal    27-Nov-2023
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 Corruption 
 
संजय गुप्त… राजस्थान (Rajasthan), छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश (Chhattisgarh Madhya Pradesh), और मिजोरम (Mizoram) में विधानसभा चुनावों (assembly elections) के लिए मतदान हो चुका है । अब केवल तेलंगाना में मतदान होना शेष है। इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान यह बात और उभरकर सामने आई कि मतदाता राजनीतिक दलों के प्रलोभन शिकार बनने के लिए तैयार है । आम तौर पर मतदाता राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में यह नहीं देखता कि उसमें अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था, नागरिक सुविधाएं, बिजली-पानी आदि के ठोस वादे किए गए हैं या नहीं? वह अब यह देखता है कि किस दल ने उन्हें क्या- क्या मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने के वादे किए हैं। इससे भी खराब बात यह है कि वह न तो प्रत्याशी की छवि पर गौर करता है और न ही उसके दल की नीतियों की । वह यह अधिक देखता है कि उसे क्या- क्या मुफ्त मिलने वाला है? वास्तव में इसी कारण रेवड़ी संस्कृति तेजी के साथ फल-फूल रही है। विभिन्न दल मतदाताओं को तरह- तरह की सुविधाएं और वस्तुएं ही मुफ्त देने की घोषणा नहीं करते, बल्कि वे उन्हें नकद राशि देने के भी वादे करते हैं । कोई भी दल यह बताने को तैयार नहीं कि वे मुफ्त वस्तुएं, जैसे कि स्कूटी, लैपटाप, मोबाइल, सोना, मुफ्त बिजली, पानी, बस यात्रा समेत अन्य वस्तुएं और सुविधाएं देने के वादे कर रहे हैं, उन्हें पूरा कैसे करेंगे? वास्तव में यह वह सवाल है, जो मतदाताओं को करना चाहिए। वह यदि यह सवाल नहीं करता तो लालच और फौरी लाभ के कारण ही ।
 
समस्या केवल यही नहीं कि राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए आर्थिक नियमों की अनदेखी करके बेहिसाब लोकलुभावन घोषणाएं रहे हैं, बल्कि यह भी है कि वे उन्हें गुपचुप रूप से किस्म-किस्म की सामग्री और पैसे देकर उनके वोट खरीदने की भी कोशिश कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति बढ़ती चली जा रही है तो इसीलिए कि औसत मतदाता चंद पैसे और मुफ्त की वस्तुओं या सुविधाओं के एवज में अपना वोट बेचने के लिए तैयार रहता है। निर्वाचन आयोग की एक रपट के अनुसार चुनाव वाले पांच राज्यों में अभी तक 1,760 करोड़ रूपये से अधिक की वस्तुएं और नकदी जब्त की जा चुकी है । यह पांच साल पहले इन्हीं राज्यों में की गई जब्ती से सात गुना अधिक है । कोई भी समझ सकता है कि आयोग की तमाम सख्ती के बाद भी मतदाताओं को बांटने के लिए एकत्र की गई सामग्री और नकदी का एक बड़ा हिस्सा उन तक गुपचुप रूप से पहुंचा दिया जाता होगा ।
 
राजनीतिक दल केवल मतदाताओं को लुभाने की हरसंभव कोशिश ही नहीं करते, बल्कि वे चुनावी खर्च की तय सीमा से अधिक धन भी खर्च करते हैं। प्रत्याशी कागजों में तो यही दिखाते हैं कि उन्होंने तय सीमा के अंदर खर्च किया, लेकिन हर कोई जानता है कि यह राशि कहीं अधिक होती है। प्रत्याशियों के अलावा पार्टियां भी अच्छा- खासा धन खर्च करती हैं। यह समझा जाना चाहिए कि महंगे होते चुनाव राजनीतिक भ्रष्टाचार की एक बड़ी वजह हैं। चुनाव में धन के मनमाने इस्तेमाल को रोकने में चुनाव आयोग असमर्थ दिखता है। सुप्रीम कोर्ट के साथ रिजर्व बैंक रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ कई बार टिप्पणियां कर चुका है, लेकिन न तो राजनीतिक दलों की सेहत पर कोई असर पड़ा और न ही मतदाता यह समझने को तैयार हैं कि मुफ्तखोरी की राजनीति उनका अहित करती है । मतदाताओं के इसी रवैये के कारण कुछ दल यह कहकर रेवड़ी संस्कृति का बचाव करते हैं कि जनता का पैसा जनता को देने में क्या हर्ज है? कुछ दल तो ऐसे हैं, जिन्होंने मुफ्त में वस्तुएं और सुविधाएं देने को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बना लिया है।
 
राजनीतिक दल अपने चुनावी चंदे का हिसाब तो देते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि उन्हें यह चंदा किससे मिला । चुनावी बांड की जो व्यवस्था बनाई गई थी, वह भी सवालों के घेरे में है, क्योंकि उससे यह पता नहीं चलता कि किसने किस दल को कितना चंदा दिया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है । देखना है कि वह चुनावी बांड के मामले में क्या निर्णय देता है और राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बना पाता है या नहीं ? राजनीतिक दलों के प्रलोभन में आकर वोट देने वाले मतदाता यह शिकायत कैसे कर सकते हैं कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। मतदाताओं को यह आभास होना चाहिए कि इस भ्रष्टाचार को बढ़ाने में उनकी भी एक बड़ी भूमिका है। यदि मतदाता भ्रष्ट चुनावी तौर-तरीकों की अनदेखी करेगा तो फिर राजनीतिक भ्रष्टाचार दूर नहीं होने वाला । यदि राजनीतिक दलों को भ्रष्ट चुनावी तौर-तरीके अपनाने से हतोत्साहित करना है तो फिर मतदाताओं को उनके प्रलोभन में आने से बचने के साथ यह प्रश्न करना होगा कि वे विकास योजनाओं लिए धन कहां से लाएंगे ? यह किसी से छिपा नहीं कि लोकलुभावन घोषणाओं के जरिये हिमाचल और कर्नाटक में सत्ता हासिल करने वाली कांग्रेस की सरकारों के पास विकास योजनाओं के लिए धन का प्रबंध करना कठिन हो रहा है, क्योंकि राजस्व का एक बड़ा हिस्सा लोकलुभावन वादों को पूरा करने में खर्च हो जा रहा है। यदि मतदाता यह ठान लें कि वे राजनीतिक दलों की लोकलुभावन घोषणाओं के फेर मैं नहीं फंसेंगे तो राजनीतिक और चुनावी भ्रष्टाचार पर लगाम लगने के साथ देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति संवर सकती है।
 
यह देखना दयनीय है कि जो राजनीति एक समय समाजसेवा थी, वह अब एक पेशा बन गई है। इसीलिए राजनीति में ऐसे लोग अधिक आ रहे हैं, जिनका इरादा येन-केन प्रकारेण धन अर्जित करना होता है। एक समय चुनावों में बाहुबल की बड़ी भूमिका होती थी। अब उसका स्थान धनबल ने ले लिया है। पहले विधायकों और संसद सदस्यों के चुनावों में ही भारी- भरकम राशि खर्च की जाती थी। अब तो पंचायत, नगर निकायों और यहां तक कि छात्र संघ के चुनावों में भी बड़ी राशि खर्च की जाने लगी है। चूंकि हमाम में सब नंगे हैं, इसलिए मतदाताओं को ही चेतना होगा। उन्हें अपने लालच पर लगाम लगानी होगी और विकास कार्यों को प्राथमिकता देने वालों का साथ देना होगा। यह ठीक नहीं कि वे मुफ्तखोरी की राजनीति करने वालों का साथ देना पसंद कर रहे हैं। उन्हें यह समझना होगा कि यह राजनीति मुफ्तखोरी की संस्कृति को बल देने, अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क करने और उनके साथ देश के भविष्य को चौपट करने वाली है।