कभी न भूलने वाली टीस

1962 काभारत-चीन युद्ध हमारे इतिहास का ऐसा काला अध्याय है, जिसे कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए....

Pratahkal    25-Nov-2023
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1962 India China War 
 
राजीव चंद्रशेखर… चीन युद्ध (china war) के दौरान देश की भारत- रक्षा के लिए दृढ़ता से दुश्मन का सामन करते हुए बलिदान होने वाले जांबाजों के बारे में हम जब भी सोचते हैं तो रेजांग ला युद्ध स्मारक पर अंकित ये शब्द गूंजने लगते हैं कि किसी व्यक्ति के लिए पितरों की अस्थियों और देवालयों के अवशेष को बचाने के लिए विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए प्राण न्यौछावर करने से अच्छी मौत और क्या हो सकती है। वालोंग, रेजांग ला, टोंगपेन ला बोमडी ला और नाथू ला जैसे स्थान वीरों के बलिदान और लहू से लथपथ होकर हमारे अंतरात्मा पर अंकित हो गए हैं। मैंने इन साहसी सैनिकों की प्रेरक वीरगाथाएं सुनी हैं। उनके पास पर्याप्त सैन्य साजोसमान नहीं थे । वे युद्ध की पूरी तैयारी भी नहीं कर पाए थे, लेकिन वायुसेना उन्हें चीन सीमा स्थित विभिन्न एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड (एएलजी) पर उतार रही थी और वहां से जख्मी सैनिकों एवं बलिदानियों के पार्थिव शरीर को वापस ला रही थी । ये बातें मुझे एक वायुसैनिक ने बताई। यह सैनिक कोई और नहीं, बल्कि मेरे पिता एमके चंद्रशेखर हैं, जो तब वायुसेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट थे ।
 
21 नवंबर, 1962 को समाप्त हुआ भारत- चीन युद्ध हमारे इतिहास का ऐसा काला अध्याय है, जिसे हम कभी भूल नहीं सकते और इसे भुलाया भी नहीं जा सकता, क्योंकि उसमें हमारे हजारों जांबाज सैनिक बलिदान हो गए और उनका परिवार उजड़ गया। उस समय राजनीति और सेना का शीर्ष नेतृत्व अक्षम लोगों के हाथों में था । हार के लिए जिम्मेदार लोगों को हमें कभी माफ भी नहीं करना चाहिए । यह सब तब हुआ, जब दीवार पर लिखी इबारत चीनी खतरे के प्रति आगाह कर रही थी, किंतु उसे अनदेखा किया गया। माओ के नेतृत्व में चीन की आक्रामक नीति की भविष्यवाणी उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने पहले ही कर दी थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र में उन्होंने चीन को संभावित दुश्मन बताया था। दुर्भाग्य से पंडित नेहरू शत्रुतापूर्ण रवैये वाले इस देश के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अवधारणा को लेकर आसक्त थे। इस मामले में वह शायद वामपंथी सोच वाले रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन से काफी प्रभावित रहे। जबकि राममनोहर लोहिया, एमएस गोलवलकर और जयप्रकाश नारायण जैसे कई दिग्गजों ने चीन के प्रति चिंता जाहिर की थी, मगर उसकी परवाह नहीं की गई। तत्कालीन सरकार 'हिंदी - चीनी भाई-भाई' के भ्रामक प्रचार में लगी रही। इसका फायदा उठाकर चीनियों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की।
 
चीन ने 1953 के बाद आक्रामक रूप से सड़क निर्माण शुरू कर दिया। चीनी सैनिक धृष्टतापूर्वक सीमाओं का उल्लंघन कर रहे थे। 1954 के आरंभ में उनके मानचित्रों में अक्साई चिन को चीनी क्षेत्र के रूप में दिखाया गया। किसी सतर्क एवं जिम्मेदार नेतृत्व के लिए यह खतरे की घंटी होती, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू जाने-अनजाने अपने चीनी समकक्ष झाउ एन लाई के बहकावे में आ गए और उन्होंने पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के मूलभूत सिद्धांतों के रूप में पेश की गई यह संधि हमारे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व के दब्बूपन की निशानी है। संधि में औपचारिक रूप से तिब्बत पर चीन के नियंत्रण को स्वीकार कर लिया गया । तीन साल बाद चीन ने राजमार्ग संख्या- 219 का निर्माण पूरा किया, जो शिनजियांग में होटन को तिब्बत में ल्हासा से जोड़ता है। उसने भारतीय सीमा गश्ती दल पर अपने क्षेत्र में घुसपैठ का आरोप भी लगाया। वह समय हमारी सरकार के लिए दृढ़ता से अपनी संप्रभुता की रक्षा करने का था । इसके बावजूद नेहरू व मेनन ने सेना प्रमुखों द्वारा संसाधनों को बढ़ाने और सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण को लेकर दिए गए सुझावों की अनदेखी की। वैचारिक दृष्टि से सोवियत संघ भी अपने कम्युनिस्ट साथी चीन के साथ खड़ा था। भारत वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ता गया। चीनी दुस्साहस बढ़ता गया । पंडित नेहरू ने प्रतिक्रिया देने में भी न केवल विलंब किया, बल्कि वह त्रुटिपूर्ण भी रही। कहां तो हमें चीन द्वारा कब्जाया भूभाग वापस लेना था, मगर इसके बदले हमें अपनी और जमीन खोनी पड़ी। उन्होंने जरूरी सैन्य सामग्री के अभाव में सेना को अक्षम हथियारों के साथ ही विवादित क्षेत्रों में सैन्य चौकियां स्थापित करने का आदेश दिया। इससे चीन के साथ सीधा टकराव हुआ। हालात को बदतर बनाते हुए पंडित नेहरू ने जनरल पीएन थापर और लेफ्टिनेंट जनरल बृज मोहन कौल जैस े 'पसंदीदा' लोगों के हाथों में सेना की कमान सौंपी। उन्होंने 1958 के अंत में एक चीनी सैन्य मिशन को भारत के प्रमुख रक्षा प्रतिष्ठानों का दौरा करने की अनुमति भी दे दी। सबसे बड़ी लापरवाही यह रही कि पंडित नेहरू ने वायुसेना की भूमिका सीमित रखी, जबकि उसका इस्तेमाल किए जाने से युद्ध में हमारी स्थिति बेहतर होती। इसके पीछे दलील यह थी कि वायुसेना की तैनाती से तनाव बढ़ जाएगा। मानो चीन के हमले को रोकना और भारत की संप्रभुता की रक्षा का कोई औचित्य ही नहीं था। युद्ध एक महीने से अधिक समय तक चला। उसमें हमारे करीब 1,300 सैनिक बलिदान हो गए । चीन ने हमारी 38,000 वर्ग किमी जमीन कब्जा ली।
 
तमाम परेशानियों के बावजूद रणभूमि में हमारे जांबाज सैनिकों के आखिरी सांस तक डटे रहने के संकल्प के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। जैसे मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में लड़ने वाली कुमाऊं रेजिमेंट के 120 जवानों की टुकड़ी ने संख्याबल में दुश्मन की कहीं बड़ी सेना से मुकाबला किया । लद्दाख की रक्षा के लिए बलिदान देने वाले इन जवानों की यूनिट ने 1,000 से अधिक चीनी सैनिक मौत के घाट उतार दिए । प्लाटून कमांडर सूबेदार जोगिंदर सिंह के नेतृत्व में टोंगपेन ला में सिख रेजिमेंट के 29 जवानों ने चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। बहादुर सैनिकों के बलिदान की ये कहानियां हमारे मानस पटल पर हमेशा के लिए अंकित हो गई हैं।
 
आज हम प्र.म. मोदी के नेतृत्व में 'विकसित भारत' के रूप में अपने भविष्य को देखते हैं, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निर्बल नेतृत्व के कारण हमारे देश को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। इस संघर्ष में सैनिक के रूप में सेवा करने और बलिदान देने वाले हर जवान की स्मृति दीप्तिमान रहे । साथ ही, अतीत के बलिदान भविष्य के लिए पथप्रदर्शक बनें।