अजय बोस: इस महीने शुरू होने जा रहे देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों (Assembly Elections) ने लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) से पहले सत्तारूढ़ भाजपा और हाल ही कांग्रेस (Congress) के नेतृत्व में गठित विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के बीच एक प्रकार से सेमी फाइनल का महत्व हासिल कर लिया है। तीन राज्यों - छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में तो दो राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा (BJP) और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है, जबकि तेलंगाना और मिजोरम में कांग्रेस को सत्तारूढ़ क्षेत्रीय दलों का मुकाबला करना पड़ेगा। अगर कांग्रेस इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करती है, तो लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा पर दबाव बढ़ेगा। लिहाजा ये चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के लिए परीक्षा हैं कि वह कांग्रेस मुक्त भारत का अपना वादा पूरा कर पाने में सक्षम हो पाते हैं या नहीं ।
पांच साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस तेलंगाना और मिजोरम में बुरी तरह हार गई थी, जबकि छत्तीसगढ़ में उसे जबर्दस्त जीत मिली थी, और मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में उसने कुछ सीटों के अंतर से जीत हासिल कर तीन राज्यों में भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था। मगर मुश्किल से एक साल बाद ही बड़ी संख्या में विधायकों के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल के कारण भाजपा मध्य प्रदेश में सत्ता वापस हासिल करने में कामयाब रही।
लंबे समय तक ऐसा लगता रहा कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एवं सचिन पायलट के बीच अंदरूनी कलह का फायदा उठाकर भाजपा राजस्थान में भी वही कहानी दोहराने वाली है। पर लगता है कि गांधी परिवार और केंद्रीय कांग्रेस नेतृत्व, दोनों ने अपनी पिछली गलतियों से कड़वा सबक सीखा है। मिलनसार एवं राजनीतिक रूप से चतुर मल्लिकार्जुन खरगे जैसे पुराने योद्धा को पार्टी अध्यक्ष बनाने से बड़ा फर्क आया है। कांग्रेस के दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों एवं अन्य विपक्षी नेताओं से निपटने में बेहद प्रभावी खरगे अब तक बिना किसी रूकावट के विधानसभा चुनावों के मौजूदा दौर में राजनीतिक सफर तय करने में कामयाब रहे हैं। गांधी परिवार ने उन्हें ऐसा करने का अधिकार दिया है।
भाजपा की अपनी समस्याएं हैं, जिन्हें उसे हल करना है। ये समस्याएं मुख्यतः केंद्रीय नेतृत्व द्वारा छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों को चुनाव अभियान का नेतृत्व देने के प्रति अनिच्छा से उपजी हैं। गौर करना चाहिए कि ऐसी ही रणनीति के कारण कर्नाटक एवं हिमाचल प्रदेश में भाजपा को सत्ता गंवानी पड़ी थी। इसलिए संकेत हैं कि अंतिम समय में केंद्रीय नेतृत्व ने इन तीनों नेताओं की नाराजगी दूर करने के प्रयास किए। दरअसल, 2018 में छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा हाई कमान ने तीन बार के मुख्यमंत्री रमन सिंह को न सिर्फ हाशिये पर डाल दिया था, बल्कि इस बार अंतिम क्षण तक यह निश्चित नहीं था कि उन्हें टिकट मिलेगा या नहीं। लेकिन अंततः उन्हें टिकट दे दिया गया। इसके बावजूद भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं कर रही, जबकि कांग्रेस भूपेश बघेल के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने जा रही है।
इसी तरह, मध्य प्रदेश में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान भाजपा की जीत होने पर भी मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। एक बार फिर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व इस दुविधा में फंसा है कि चुनाव में पार्टी की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाए बिना चौहान का कद कैसे छोटा किया जाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया के घटते प्रभाव ने इसे और जटिल बना दिया है, जिनके पूर्व वफादार अब फिर से कांग्रेस में लौट रहे हैं। राजस्थान में भाजपा के लिए राह तुलनात्मक रूप से आसान होनी चाहिए, जहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सत्ता विरोधी रूझान और नाराज प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट, दोनों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन भाजपा यहां भी दुविधा में है कि राजनीतिक नुकसान उठाए बिना प्रभावी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को कैसे कमजोर किया जाए। पिछले महीने एक समय ऐसा लगा था कि भाजपा नेतृत्व वसुंधरा राजे के वफादारों को टिकट नहीं देने जा रहा। लेकिन राजे के तेवर को देखते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने अपना रूख बदला और अंतिम क्षण में उनके वफादारों को इस उम्मीद में टिकट दिया कि इससे वह आश्वस्त होंगी। इन तीनों चुनावी राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच सबसे बड़ा अंतर यही है कि भाजपा ने किसी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश नहीं किया है और वह प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट मांग रही है, जबकि कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पहले से ही तय कर रखे हैं । अब देखना यह है कि इसका चुनावों में क्या असर पड़ता है। हिमाचल एवं कर्नाटक के नतीजों को देखते हुए भाजपा के
लिए यह चिंताजनक होना चाहिए। तेलंगाना और मिजोरम का उभरता चुनावी परिदृश्य भी केंद्र सरकार के लिए चिंता का विषय है। वहां हाल के महीनों में कांग्रेस ने उल्लेखनीय राजनीतिक बढ़त हासिल की है। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि भाजपा समेत विभिन्न दलों के नेता बड़ी संख्या में कांग्रेस में शामिल हुए हैं। मिजोरम में आदिवासी आबादी है, जिनमें से अधिकतर ईसाई हैं, जो पड़ोसी राज्य मणिपुर के कु समुदाय से जातीय संबंध साझा करते हैं । वे मणिपुर में कुकियों और देश के अन्य हिस्सों में ईसाइयों को निशाना बनाए जाने से क्षुब्ध हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले राजग से संबद्ध होने के बावजूद केंद्र सरकार का पर्याप्त विरोध न करने के कारण सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट के प्रति राज्य में असंतोष है। इसका लाभ अगर कांग्रेस और मुख्य विपक्षी पार्टी जोरम पीपुल्स मूवमेंट को चुनाव में मिले, तो आश्चर्य नहीं। फिर भी यह देखना बाकी है कि क्या कांग्रेस पूरी ताकत से चुनाव लड़ते हुए अपने विरोधियों की कमजोरियों का फायदा उठा पाएगी ? यह काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले हफ्तों में वह गति खोए बिना अपनी पकड़ बनाए रख सकती है या नहीं, क्योंकि अनुमान यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनावी रथ जब रफ्तार पकड़ेगा, तब शक्ति और संसाधनों के मामले में प्रभावी भाजपा को उसका फायदा मिलेगा।