संघ बहाना, मोदी निशाना

30 Jan 2023 15:02:47
 
Narendra Modi-Mohan Bhagwat
 
अनंत विजय : इन दिनों पूरे देश में प्रमुख रूप से दो चर्चा हो रही है। एक बीबीसी की डाक्यूमेंट्री (BBC documentary) 'इंडिया, द मोदी क्वेश्चन' (India: The Modi Question) की और दूसरी शाहरूख खान की फिल्म ‘पठान' (Pathan) की। वामपंथी छात्र संगठन बीबीसी की डाक्यूमेंट्री का सार्वजनिक प्रदर्शन चाहते हैं। इस पर विवाद हो रहे हैं। फिल्म पठान को सफल बताकर उसी ईकोसिस्टम के लोग भाजपा (BJP) के समर्थकों को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। बीबीसी की डाक्यूमेंट्री की आड़ में वे दल भी हमलावर हैं जिनके नेता ऐश्वर्या राय से लेकर क्रिकेट की अधिक चर्चा होने पर मीडिया को घेरते रहे हैं। अगर डाक्यूमेंट्री की ही चर्चा करनी थी तो 'आल दैट ब्रीथ्स' और 'द एलिफेंट व्हिस्पर्स' की चर्चा करते। उनका सार्वजनिक प्रदर्शन करते। ये दोनों आस्कर अवार्ड के लिए शार्टलिस्टेड हैं। इसकी चर्चा नहीं कर वामदलों का ईकोसिस्टम एक ऐसी डाक्यूमेंट्री की चर्चा करने में लगा है जिसका रिसर्च तो दोषपूर्ण है ही उसकी मंशा पर भी प्रश्नचिह्न है। 'द मोदी क्वेश्चन' में गुजरात हिंसा के बहाने प्र.म. मोदी को घेरा जा रहा है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आ चुका है।
 
बीबीसी की डाक्यूमेंट्री अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब करने का एक प्रयास है। ऐसा नहीं है कि इस तरह का प्रयास पहली बार हुआ है। पिछले महीने 'द इकोनमिस्ट' में एक लेख प्रकाशित हुआ था, 'द मिथ आफ ए होली काउ।' इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गाय और हिंदू राष्ट्र को जोड़कर देखा गया। इस लेख के लेखक ने यह गिनकर बताया कि ऋग्वेद में 700 जगहों पर गाय का उल्लेख है, परंतु गोमांस नहीं खाने की बात कहीं नहीं है। ग्रंथों से खोजकर बताया गया है कि प्राचीन काल में गोमांस खाने का उल्लेख मिलता है। लेख में आर्य समाज को हिंदू फंडामेंटलिस्ट समूह बताया गया है। आर्य समाजियों ने भारत की हिंदू पहचान को फिर से स्थापित करने के लिए गोरक्षा को औजार बनाया था । वह हिंदू पहचान जो मुस्लिम आक्रांताओं की वजह से धूमिल पड़ गया था। लेख में देश की स्वतंत्रता के लिए भी गोरक्षा के उपयोग का तर्क दिया गया है। इस संदर्भ में गांधी को उद्धृत किया गया है। गांधी गोरक्षा को विश्व को हिंदुत्व का तोहफा मानते थे और कहते थे कि हिंदुत्व तब तक रहेगा जब तक गाय की रक्षा करने वाले हिंदू रहेंगे। कहना न होगा कि लेखक ने गोरक्षा को हिंदुत्व से जोड़कर उस पर राजनीति करने वालों और घटनाओं को गिनाया। फिर उसे मोदी और मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से जोड़ा। लेख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दक्षिणपंथी अर्धसैनिक संगठन तक बता दिया। यह तो एक उदाहरण मात्र है, जबकि ऐसे कई लेख 'द इकोनमिस्ट' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस तरह के लेखों को आधार बनाकर वामपंथी इकोसिस्टम छाती कूटने लगता है।
 
अगले वर्ष देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। अभी जिस तरह का माहौल है और चुनावी सर्वे एवं चुनावी पंडित जो संकेत दे रहे हैं उससे लगता है कि नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व में भाजपा तीसरी बार केंद्र में सरकार बनाएगी। एक तरफ विपक्षी दल यात्राओं आदि के माध्यम से सरकार पर हमलावर हैं तो दूसरी तरफ ईकोसिस्टम को काम पर लगाया गया है। पिछले दिनों कन्नड़ के लेखक देवानूरू महादेवा की एक पुस्तिका पर नजर पड़ी इस पुस्तिका का नाम है- आरएसएस, द लांग एंड द शार्ट आफ इट । इन्होंने 2015 में पुरस्कार वापसी अभियान के दौरान साहित्य अकादमी और पद्मश्री पुरस्कार लौटाने की घोषणा की थी । यह भी बताया गया है कि छात्र जीवन में देवानूरू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में थे। बाद में उनका कई कारणों से मोहभंग हो गया। छोटी सी पुस्तिका की भूमिका रामचंद्र गुहा ने लिखी है और अंत में योगेंद्र यादव की एक टिप्पणी भी है। यानी एक लंबे लेख को पुस्तिका की शक्ल दी गई।
 
इस पुस्तिका में देवानूरू महादेवा की स्थापना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) मनुस्मृति (Manusmriti) के चातुर्वर्ण के आधार पर समाज को बांटकर रखना चाहता है । इस्लाम और ईसाई धर्म का विरोध संघ इस वजह से करता है, क्योंकि इन दोनों धर्मों में चातुर्वर्ण का निषेध है। संघ को यह निषेध स्वीकार नहीं । संघ चाहता है कि समाज में जाति व्यवस्था बनी रहे । देवानूरू महादेवा अपनी इस स्थापना के लिए गुरूजी गोलवलकर और वीर सावरकर के लेखों और पुस्तकों को उद्धृत करते हैं। एक जगह वे सुरूचि प्रकाशन से 1997 में प्रकाशित पुस्तक 'परम वैभव के पथ पर' को उद्धृत करते हुए बताते हैं कि उसमें संघ से जुड़े 40 संगठनों का उल्लेख है। जब किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना होता है तो तथ्यों के साथ इसी तरह से छेड़छाड़ की जाती है। डा. सदानंद दामोदर सप्रे की इस पुस्तक में 31 संगठनों का विवरण है जिसे देवानूरू महादेवा 40 बता रहे हैं। यहां तक कि वे धर्म संसद को भी संघ की संस्था के तौर पर उल्लिखित करते हैं। एक जगह लेखक विरोधी दल के नेता की तरह हर भारतीय को 15 लाख के वादे और करोड़ों को नौकरी आदि का प्रश्न उठाते हैं । लेखक या गुहा और यादव जैसे उनके समर्थकों को यह बताना चाहिए कि उनकी पालिटिक्स क्या है ।
 
अपनी इस पुस्तिका में लेखक चातुर्वर्ण को लेकर भी भ्रमित हैं। वे व्यवसाय आधारित जाति व्यवस्था और जन्म आधारित जाति व्यवस्था का घालमेल करते हुए दोषपूर्ण निष्कर्ष देते हैं । भारत रत्न से सम्मानित लेखक डा. पांडुरंग वामन काणे ने अपनी पुस्तक 'धर्मशास्त्र का इतिहास' के पहले खंड में इस पर विचार किया है। काणे ने एक जगह कहा है, जन्म और व्यवसाय पर आधारित जाति व्यवस्था प्राचीन काल में रोम और जापान में भी प्रचलित थी। किंतु जैसी परंपराएं भारत में चलीं और उनके व्यावहारिक रूप जिस प्रकार भारत में खिले, वे अन्यत्र दुर्लभ थे और यही कारण था कि अन्य देशों में पाई जाने वाली व्यवस्था खुल-खिल न सकी और समय के प्रवाह में पड़कर समाप्त हो गई। पता नहीं देवानूरू ने कौन सी मनुस्मृति और कौन सा अनुवाद पढ़ा। यदि इसका भी उल्लेख कर देते तो स्पष्ट होता । मनुस्मृति के कई अंग्रेजी अनुवाद हुए। जार्ज बुलट के अनुवाद को श्रेष्ठ माना जाता है। काणे बलुट की उस स्थापना का भी निषेध करते हैं जिसमें वे कहते हैं कि मनुस्मृति, मानवधर्मसूत्र का रूपांतर था । काणे इसे कोरी कल्पना कहते हैं। संभव है कि देवानूरू ने कोई ऐसा ही भ्रामक अनुवाद पढ़कर अपनी राय बना ली हो ।
 
दरअसल अगले वर्ष लोकसभा चुनाव तक कई ऐसी पुस्तकें और पर्चे छपेंगे जिनमें इसी तरह की भ्रामक बातों की ओट में राजनीति की जाएगी। कुछ फिल्में भी आएंगी जिनमें इस तरह के संवाद होंगे जो वर्तमान परिस्थिति में परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों के खिलाफ होंगे। जैसे अभी एक फिल्म आई- मिशन मजनू । इसमें एक लंबा संवाद है जिसमें नायक कहता है कि हम इंडिया हैं, नफरत पर नहीं प्यार पर पलते हैं। इसे सुनकर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की यात्रा के दौरान के उनके बयान याद आते हैं। दरअसल इकोसिस्टम प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमला दिखता है, लेकिन असली निशाना नरेन्द्र मोदी हैं ।
 
 
 
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