
शंकर शरण : स्वतंत्र भारत में सेक्युलर - वामपंथ (Secular - Left) की समूची राजनीति के तमाम अग्रणी विचारक, रणनीतिकार और प्रचारक मुख्यतः हिंदू (Hindu) ही रहे हैं। ऐसे तमाम नेता, अकादमिक, लेखक और पत्रकार भी हिंदू मिलेंगे। उन्हें किसी अन्य धर्म या समाज में बुराई नहीं दिखती। केवल हिंदू समाज, शास्त्र और परंपरा में दिखती है । उसी क्रम में कुछ हिंदू संगठनों द्वारा हिंदू संस्थानों को ही नीचा दिखाना तक आता है। इसका एक उदाहरण रांची में कुछ हिंदूवादी संगठनों द्वारा की गई रामकृष्ण मिशन की भर्त्सना है। मिशन में क्रिसमस (Christmas) पर जीसस की प्रार्थना की गई थी। इस पर कुछ हिंदूवादियों ने मिशन के विरूद्ध आक्रोश व्यक्त किया, जबकि ठीक उसी समय इन्हीं संगठनों के नेता दिल्ली में बिशपों को न्योता देकर क्रिसमस का जलसा आयोजित कर रहे थे। तब उन्हीं हिंदूवादियों द्वारा रामकृष्ण मिशन में जीसस की पूजा - आरती पर आक्षेप विचित्र है। कायदे से तो उन्हें रामकृष्ण मिशन में जीसस पूजा का स्वागत करना चाहिए था, अन्यथा जीसस को राम के समान पूजनीय मानने का क्या मतलब हुआ? यह तो आम हिंदुओं को भ्रमित करना और सम्मानित हिंदू संस्थाओं को बदनाम करने का दोहरा पाप है। खासकर तब, जबकि रामकृष्ण मिशन (Ram Krishna Mission) अपने संस्थापक स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) की भावनाओं पर चल रहा है।
अमेरिका (America) में 1 अप्रैल, 1900 को 'कृष्ण' पर एक व्याख्यान में विवेकानंद ने भगवान कृष्ण और जीसस क्राइस्ट के जन्म की परिस्थितियों की तुलना की थी। उन्होंने न्यू टेस्टामेंट और गीता में कुछ समानता भी दिखाई थी, किंतु उसके अगले ही महीने, 'गीता' पर अपने व्याख्यान में ईसाई विश्वासों और हिंदू विश्वासों में बुनियादी भेद को भी उन्होंने उसी सहजता से रखा था । अमेरिका में ही 'मोहम्मद' पर एक व्याख्यान में विवेकानंद ने अपने स्वभाव के अनुरूप रहना और आत्मश्रद्धा रखने को ही 'सर्वोच्च धर्म' बताया था। अपने तमाम व्याख्यानों द्वारा विवेकानंद ने संपूर्ण मानवता के सार्वभौमिक धर्म के रूप में वेदांत को ही प्रतिष्ठित किया था । इस हेतु दूसरे धर्मों पर चोट करने के बदले अपने अनुयायियों का विवेक जाग्रत करने का यत्न किया था, किंतु इसके लिए उन्होंने ईसाई मिशनों, मुहम्मदी व्यवहारों अथवा इतिहास की लीपापोती कभी नहीं की। अपनी हिंदू वैचारिकता पर दृढ़ रहकर, सत्यनिष्ठा और प्रेम के साथ उन्होंने सर्वत्र वेदांत का सफल प्रचार किया। उन्होंने लक्ष्य का मुख्य साधन शिक्षा को बताया। उनके विचार में भारत की विदेश नीति के मुख्य अंग वेदांत का प्रसार समस्त संसार में होना चाहिए। उसकी तुलना में हमारे राजनीतिक हिंदूवादी अपने संस्थापक की शिक्षाओं और भावनाओं के सर्वथा विरूद्ध जा रहे हैं। जैसे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने भारत में हिंदू समाज (Hindu society) के अतिरिक्त दूसरे समाजों को 'अराष्ट्रीय' कहा था। उनके अनुसार बाहरी 'भोगवादी अराष्ट्रीय' मौज- मस्ती करते हुए घर की परवाह नहीं करते। डॉ. हेडगेवार अंग्रेजों और मुसलमानों (Muslim) दोनों को भारत के प्रति आक्रामक भाव रखने वाला मानते थे, जिनमें साठगांठ थी इसीलिए, उन्होंने गांधी जी और कांग्रेस (Congress) के मिश्रित राष्ट्रवाद को 'विकृत राष्ट्रीयता' कहा था। उन्हें दलीय राजनीति से सख्त परहेज था और इसी कारण वह संघ कार्यकर्ताओं को कांग्रेस एवं हिंदू महासभा से दूर ही रखने का यत्न करते थे । अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाने को सर्वोपरि लक्ष्य मानते हुए भी उन्होंने दलीय राजनीति को खारिज किया । वस्तुतः, संघ द्वारा ही प्रकाशित 'डॉ. हेडगेवार चरित' जीवनी में ऐसे कई मूलभूत विचार मिलते हैं, जिनसे संघ परिवार दूर हो गया है । आज खोजने पर भी डॉ. हेडगेवार के विचारों, दस्तावेजों और लेखन का कोई ठोस संग्रह नहीं मिलता। यह क्या दर्शाता है ? यही कि संघ संगठनों में अपने संस्थापक के विचारों के प्रति संकोच का भाव है। अब वे पूरी तरह भिन्न विचारों-नीतियों को अपना चुके हैं। दलीय राजनीति में डूब जाना तथा हिंदू धर्म-समाज एवं राष्ट्रवाद के अर्थ को गड्ड- मड्ड करना उसी के उदाहरण प्रतीत होते हैं।
आज संघ के नेता ईसाई मिशनों और बिशपों से घनिष्ठता बढ़ा रहे हैं। पैगंबर मोहम्मद का जन्मदिन मना रहे हैं। जरा सोचें कि डॉ. हेडगेवार ने कब यह सब करने को कहा था? उन्होंने तो जब भारत पर विदेशी शासन था, तब भी हिंदुओं के सैन्य प्रशिक्षण के खुले अभियान चलाए थे। वह कोई अनुचित या अवैध काम नहीं था । अन्यथा ब्रिटिश शासन उसे निश्चित ही रोक देता। उसकी तुलना में आज स्वतंत्र भारत में हिंदुओं पर होते कानूनी भेदभाव और सामाजिक हिंसा (Legal discrimination and social violence) पर भी संघ परिवार के नेता अक्सर चुप्पी साधे रहते हैं। उनकी तुलना में स्वामी विवेकानंद के अनुयायियों में अपने संस्थापक के विचारों पर गर्व है। वे उनके विचारों का तमाम भाषाओं में अनुवाद कर प्रचार के लिए प्रयासरत हैं। रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित विद्यालय अनुकरणीय कार्य कर रहे हैं । तब राजनीतिक हिंदुवादियों द्वारा उन पर चोट करना अपने ही समाज की हानि करने के समान है। उन्हें समझना चाहिए कि हिंदू संस्थाओं को लांछित करने और अपने एकाधिकार की नीति उनके अपने हित में भी नहीं है।
वस्तुतः हमारे धर्म, संस्कृति और शिक्षा के संदर्भ में पार्टी बंदी या एकाधिकारी भावना हानिकारक है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि श्रीअरविंद और रवींद्रनाथ टैगोर आदि आधुनिक मनीषियों ने कभी पार्टी बंदी को उपयोगी नहीं समझा। उन्होंने सामाजिक उत्थान या राष्ट्रीय उन्नति के लिए किसी दलबंदी को आवश्यक नहीं समझा। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत में वामपंथियों की भांति हिंदूवादी भी दलबंदी से ग्रस्त हो बैठे। इसके लिए उन्होंने महान हिंदू मनीषियों और अपने संस्थापकों की सीखें भी भुला दीं। फलतः उन्होंने धर्म को राजनीति के अधीन मान लिया, जबकि संपूर्ण हिंदू ज्ञान-परंपरा ने राजनीति समेत प्रत्येक सांसारिक कार्य को धर्म के अधीन रखने की सुनिश्चित सीख दी है। उसी को वर्तमान युग में भी सभी हिंदू मनीषियों ने दृढ़ता से पुनः समझाया है। स्पष्ट है कि हिंदूवादी संगठनों को दलबंदी की सीमाएं पहचाननी चाहिए । साथ ही अंतस में झांककर अपने सिद्धांत- व्यवहार - इतिहास का सत्यनिष्ठ मूल्यांकन भी करना चाहिए ।